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कहानी: पूर्व धारणा

समाज में बहुत से ऐसे प्रगतिकामी और अच्छे लोग हैं जिनके बारे में हम बिना सोचे-समझे अपनी धारणा बना लेते हैं। प्रस्तुत है ऐसे ही एक अच्छे इंसान और बेहतर पिता की दास्तान..

By Babita KashyapEdited By: Published: Mon, 16 Jan 2017 03:50 PM (IST)Updated: Mon, 16 Jan 2017 04:06 PM (IST)
कहानी: पूर्व धारणा
कहानी: पूर्व धारणा

गुड आफ्टरनून मैम!'

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'अरे अमीना! तुम यहां कैसे?' बहुत सारे पैरेंट्स के साथ मेरी एक पुरानी स्टूडेंट स्कूल के सामने खड़ी थी।

'मैम, आपको मेरा नाम याद है?' उसकी आवाज में आश्चर्य था।

'क्यों भई इतनी सुंदर और इंटेलीजेंट स्टूडेंट को भला कोई भूल सकता है?' मैंने हंसते हुए कहा।

कई साल पहले अमीना मेरी क्लास में थी। ब्यूटी बिद द ब्रेन का जीता-जागता उदाहरण।

क्लास में प्रश्न पूछने वाली एकमात्र छात्रा। कॉलेज के सारे कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाली अमीना। तब वह मेरे बहुत करीब आ गई थी। यह सही है कि स्टूडेंट का चेहरा याद रह जाता है लेकिन यह सच है कि नाम याद नहीं रहता है, मगर अमीना की बात और थी। वह खास स्टूडेंट थी।

सबकी चहेती। मगर एक बार कोर्स खत्म हुआ तो फिर एक शहर में रहते हुए भी कभी मिलना न हुआ। आज ऑटोवालों की स्ट्राइक थी इसलिए सुबह बिटिया को उसके पापा स्कूटर से छोड़ आए थे। छुट्टी के समय धूप काफी तेज थी इसलिए मैंने कहा चलो कार से ले आते हैं, मैं भी संग चलती हूं। हम बेटी के स्कूल के सामने छुट्टी होने के इंतजार में खड़े थे, वहीं अमीना दिखी।

'मैम, मेरी बेटी आपकी बेटी के साथ ही पड़ती है। दोनों एक ही ऑटो में आती-जाती हैं। अब्बू लखनऊ गए हैं इसलिए मुझे आना पड़ा।' 'कब हुई तुम्हारी शादी? क्या करते हैं तुम्हारे शौहर?' मैंने एक साथ दो प्रश्न दाग दिए साथ ही पूछ लिया कि कहां रहती है वह?

'बी.एड. का रिजल्ट निकलने के पहले ही मेरा निकाह हो गया था।' उसने अपने घर का पता बताया। उसका घर हमारे घर के रास्ते में पड़ता था।

छुट्टी की घंटी लग गई थी बच्चे पंछियों की तरह उड़ते चले आ रहे थे। एक प्यारी-सी बच्ची ने आकर अमीना का हाथ पकड़ लिया। 'इनको ग्रीट करो, ये मेरी टीचर हैं।' बच्ची मुझे देख रही थी। 'तुम्हारी टीचर की तरह मारती नहीं थीं। बहुत प्यार से पढ़ाती थीं।' बच्ची टुकुर-टुकुर देखती रही। उसकी आंखें बिल्कुल अमीना की तरह थीं,

बड़ी-बड़ी और बहुत स्वच्छ।

'क्या नाम है?' मैंने पूछा।

'सुहैल।'

'बड़ा प्यारा नाम है। क्या मतलब होता है सुहेल का?' मैंने अमीना की ओर देखकर पूछा। मगर उत्तर बच्ची ने दिया, 'सुहेल एक तारा का नाम है। यह खुशबू देता है।'

'अरे वाह! तभी मैं कहूं यह खुशबू कहां से आ रही है!'

वह शरमा गई।

हमारी बिटिया भी आ गई थी।

'सर आप कैसे हैं?

'ठीक हूं, हमारे संग चलो, रास्ते में तुम्हें छोड़ देंगे। आज कोई पब्लिक ट्रांसपोर्ट नहीं मिलेगा।' - मेरे पति ने कहा। वह उनकी भी छात्रा रह चुकी थी।

अमीना और दोनों बेटियां पीछे बैठ गईं, मैं पति के साथ आगे बैठ गई। कार चली तो मैंने पीछे

मुड़कर फिर पूछा, 'क्या करते हैं तुम्हारे शौहर?' 'मैम, मैं उनके साथ नहीं रहती।'[

'ओह! सॉरी।'

'मैम, मेरे लिए सॉरी मत फील कीजिए।

उस आदमी के लिए सॉरी फील कीजिए जिसने खुदा की नियामत को ठुकरा दिया। इतनी प्यारी बच्ची की कद्र नहीं की।' 'क्या हो गया?'

मैंने किसी तरह पूछा।

'मैम, आप तो जानती हैं मेरे अब्बू मौलवी हैं, दीन-दुनिया के पचड़ों में नहीं पड़ते।'

उसने पहले भी यह बताया था। मौलवी कहते ही मन में एक दकियानूसी आदमी की तस्वीर

उभरी।

'बी.एड. के इम्तिहान खत्म होते ही उन्होंने मेरी शादी कर दी। मेरी सास मेरे अब्बू की दूर की बहन

हैं। सास मुझे खूब प्यार करती थीं। पति भी प्यार करते थे।'

'फिर क्या हो गया?' मैंने आगे की बात जाननी चाही।

'शादी के एक साल बाद मैं प्रेग्नेंट हो गई। सब ठीक था, सब खूब खुश थे। तभी एक दिन सास ने टेस्ट कराने के लिए कहा। मां-बेटे को बेटा चाहिए था। मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि बेटा होगा या बेटी। मैं चाहती थी जो भी हो, बस तंदुरुस्त हो। मैं टेस्ट नहीं चाहती थी।'

'हां, इस तरह के टेस्ट बैन हैं।'

मैंने अपना ज्ञान बखाना।

वह थोड़ी व्यंग्य से हंसी, 'मैम, सारे बैन किए काम होते हैं। मेरी सास जबरदस्ती मुझे टेस्ट के लिए ले गईं। टेस्ट में वही रिजल्ट आया जिसका उनको अंदेशा था। मेरे पेट में बेटी थी। बस पीछे पड़ गईं। जिद पकड़ ली कि मुझे हमल गिराना होगा। मैं इसके लिए राजी नहीं थी। मेरे पति भी बेटा चाहते थे। मां-बेटा एक तरफ और मैं अकेली

एक तरफ। मैंने ईमान का वास्ता दिया पर मेरी किसी ने न सुनी। एक दिन दोनों मुझे जबरदस्ती

एक क्लीनिक ले गए।'

'अरे ये तो गैरकानूनी है।' मेरे मुंह से न चाहते हुए भी निकल गया।

'मैम, पैसे के सामने कानूनी-गैरकानूनी कुछ नहीं होता। डॉक्टर ने पर्ची पर दवाइयों के नाम लिखकर एक खास दुकान से लाने के लिए पति को भेज दिया और मुझे एक टेबल पर लेटने को कहा। मैं बहुत डरी हुई थी मुझे लग रहा था कि बच्ची के साथ-साथ मैं भी मर जाऊंगी। मैं न तो बच्ची को मारना चाहती थी न ही खुद मरना चाहती थी। मैंने डॉक्टर से कहा कि मैं बाहर बैठी अपनी सास से कुछ बताकर आती हूं। असल में मैंने सास को बगल की पान की दुकान पर जाते देख लिया था। वे पान बिना एक मिनट नहीं रह सकती हैं। मैं चुपचाप क्लीनिक से बाहर निकलकर सास से आंख बचाती हुई अपने घर की ओर चल पड़ी। अब्बू घर में ही थे।

उनको देखकर मैंन बेतहाशा रोना शुरू कर दिया।

मुझे अकेला और रोता देखकर वे घबरा गए। वे पूछ रहे थे कि मुझे क्या हुआ है? मुझसे कुछ बोला न जाए बस रोती जाऊं। उन्होंने मुझे पानी पिलाया और धीरे-धीरे मैंने उन्हें सब बता दिया। सुनकर अब्बू चुप रहे, अपने में गुम। मैं डर रही थी कहीं अब्बू भी उन्हीं लोगों के संग न हो जाएं। अब्बू ने मुझे सुला दिया, मैं इतनी हल्कान हो गई थी कि चुपचाप सो गई। शाम को मेरी सास और पति आए। खूब चीखे-चिल्लाए। मुझे घर ले जाने की धमकी दी, मेरी हिम्मत पर लानत भेजी। अब्बू ने बहुत आहिस्ता से कह दिया कि अब अमीना आप लोगों के घर नहीं जाएगी। आप लोग जाइए और फिर कभी यहां मत आइएगा। वे लोग धमकी देते, बड़बड़ाते चले गए।'

'अब्बू ने मेरे कारण ही अम्मी के गुजरने पर दोबारा शादी नहीं की थी, वे फिर से मेरी देखभाल करने लगे। जब ये पैदा हुई मैं बहुत कमजोर थी मेरा ब्लडप्रेशर भी बहुत हाई था। डॉक्टर ने मुझे बच्चा देने से मना कर दिया था। अब्बू ने ही इसे पाला। मेरी तीमारदारी करते, इसकी चिंता करते।

रात-रात भर इसे सीने से लगाए जागते रहते।

इसकी नैपी बदलते। मैम, मेरे अब्बू कॉलेज नहीं गए हैं, बहुत पढ़े-लिखे नहीं है मगर उन्होंने जो हिम्मत दिखाई वह पढ़े-लिखे नहीं दिखा पाते हैं। आप ठीक कहती थीं कि अक्ल का डिग्री से कोई रिश्ता नहीं होता है। मेरे पति तो इंग्लिश मीडियम मिशनरी स्कूल में पढ़े हैं, कई डिग्री हैं उनके पास।

मगर उनके भीतर अक्ल नाम की कोई चिडिय़ा नहीं है।'

मुझे याद नहीं आ रहा था कि मैंने कभी ऐसा कहा था, शायद कभी कहा हो।

'सर, बस लेफ्ट में रोक दीजिए, मेरा घर यहीं है।'

कार से उतरकर उसने हमें भीतर चलने के लिए कहा, मगर यह समय नहीं था। हमने

फिर कभी आने को बोला। कार चलने से पहले मैंने उससे कहा, 'अपने अब्बू को मेरा सलाम

कहना।'

कभी नहीं सोचा था एक मौलवी इतने आधुनिक विचार वाला हो सकता है। हम बिना सोचे-समझे अपनी धारणा बना लेते हैं। उनको लेकर हमारी सोच कितनी घटिया रही है, यह सोचकर शर्म आ रही है। पता नहीं मैं किसके सामने अपना गुनाह कबूल रही थी। पति के सामने, अपनी बच्ची के सामने या खुद अपने सामने। शायद तीनों के सामने।

(वरिष्ठ कथा लेखिका। अनेक महत्वपूर्ण विदेशी कृतियों का अनुवाद एवं संपादन)

326, न्यू सीतारामडेरा, एग्रीको, जमशेदपुर-831009

विजय शर्मा

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