कहानी: करेला
रतनारी आंखों और तीखे नैन-नक्श वाली सुंदर पत्नी क्या आई मज्जी के रूखे-सूखे और अभावग्रस्त जीवन में प्रेम की छटा छा गई। लेकिन प्रेम अमृत होता है तो कभी विष भी...
करेला! कहीं से एक तेज आवाज आई और अचानक ही सड़क पर तूफान सा आ गया। तुरंत ही उसने रिक्शे को बायीं ओर मोड़कर किनारे रोकते हुए हैंडिल पर लटकते रस्से के छल्ले को ब्रेक पर सरकाकर लगाया और जब तक हम बच्चे कुछ समझ पाते, एक ईंट का अद्धा उठाकर उन भागते दो लड़कों की ओर दौड़कर फेंका जिधर से शायद वो आवाज आई थी। कुछ क्षणों के लिए सड़क पर चलते लोग और वाहन थम से गए, पर थोड़ी ही देर में वातावरण
में हंसी के साथ सब कुछ सामान्य हो गया।
वो गुस्से में बुदबुदाते हुए वापस लौटा, रस्सी के छल्ले को ब्रेक पर से वापस हैंडिल पर खिसकाते हुए रिक्शे की
ऊंची कड़ी सीट पर बैठा और स्कूल की ओर बढ़ चला। ‘क्या हुआ था?’ हमने थोड़ी देर बाद पूछा। ‘कुछ नहीं’ उसने तेजी से पैडल मारते हुए जवाब दिया। ऐसा लगा कि उसका सारा गुस्सा उन पैडलों पर निकल रहा था। वह था मज्जी, हमारा रिक्शेवाला जो हमे रोज स्कूल लाता-ले जाता था। नाटा कद, पीठ पर कूबड़, दबा रंग, सिर पर अस्त-व्यस्त घने बालों वाला यह व्यक्ति प्रथम दृष्टया कतई आकर्षक नहीं था।
‘क्या आपको कोई और नहीं मिला?’, मां ने पिताजी से तुरंत ही धीरे से पूछा था। ‘मैंने उसके बारे में सब पता
कर लिया है, अच्छा और भरोसे के लायक है और यहीं पास में एक फर्लांग पर रहता है।’ उन्होंने आश्वस्त करते
हुए कहा।
‘भैया चलो!’ अगली सुबह एक तेज पुकार आई- ठीक उतने समय, जब उसने आने को कहा था। जिस स्नेह से उसने बस्ते को अपने कंधे पर लेते हुए, पहली बार किसी अजनबी के साथ घर से बाहर निकल रहे पांच वर्ष के बालक की उंगली पकड़ी और बहलाते हुए रिक्शे की ओर बढ़ा, मां का उसको लेकर सारा संशय मिट गया।
हौले से उसे उठाकर उसने रिक्शे पर बैठाया और एक नए संबंध का सूत्रपात हुआ।
मज्जी का व्यवहार सभी बच्चों के प्रति अभिभावक का ही होता था। स्वयं अपढ़ होते हुए हुए भी परीक्षा के
समय वो यह सुनिश्चित करता हुआ रिक्शा चलाता जाता था कि सभी बच्चे अपने पाठ को दुहरा रहे हैं। क्या मजाल
कि कोई अनुचित शब्द किसी के मुंह से निकल जाए और यदि ऐसा हो गया तो उसकी डांट के साथ-साथ घर तक
बात पहुंचनी भी निश्चित होती थी।
रिक्शे की गद्दी के नीचे का स्थान सभी बच्चों के लिए कौतूहल का केंद्र होता था। गद्दी उठाने पर वो बिलकुल दादी की संदूकची जैसे लगता था। उसमें उसके काम की ढेरों वस्तुओं के साथ-साथ इमली, अमरख, अमरूद, कच्ची अमियां जैसी बाल्य-रूचि की चीजें भी होती थीं। रिक्शे के बच्चों को होली पर उसके द्वारा तैयार विशेष गाढ़े रंग और दीवाली पर चुटपुटिया बजाने के लिए नट-बोल्ट से बने यंत्र की प्रतीक्षा रहा करती थी। उसी संदूकचीनुमा जगह में एक बड़ी, पुरानी सी बरसाती भी रहती थी। बारिश में प्राय: वह उस बरसाती से रिक्शे के उस भाग को तो ढंक देता था जहां बच्चे बैठते थे और स्वयं भीगते हुए रिक्शा खींचता चलता था। उस रविवार तो वो बिलकुल बदले स्वरूप में था! करीने से कड़े बाल, साफ और प्रेस किए कपड़े और मुख पर एक चमक। वह मां
से कुछ पैसे उधार लेने आया था।
उसकी सगाई थी उस दिन, उसने शर्माते हुए बताया। विवाह के कुछ ही दिनों बाद वो अपनी पत्नी को मां से मिलवाने ले आया तीखे नैन-नक्श, साफ रंग और दीप्तिमान आंखें- मेरी बाल-दृष्टि को भी वो भली लगी। जाड़े की
उस दोपहर महिलाओं की बातचीत का विषय वही रही। ‘इतनी सुन्दर! ये मज्जी जैसे व्यक्ति से विवाह को तैयार
कैसे हो गई?’ उनमे से किसी एक की यह आश्चर्यसिक्त् अभिव्यक्ति और उस पर अन्य सभी महिलाओं
का सहमति का भाव, उस विशद चर्चा का सार रहा।
मज्जी ने रहने की जगह बदल दी। पुरानी जगह एक नवविवाहित जोड़े के लिए उपयुक्त नहीं थी। यह एक
बड़े से खाली प्लाट के एक कोने पर उधड़ा-उजड़ा सा, बिना रंग-रोगन, प्लास्टरविहीन एक कमरा था। कुछ ही
समय में वह उजाड़ सी जगह, जहां तब तक मात्र एक अमरख का पेड़ था, एक छोटे से बगीचे में परिवर्तित हो चली थी। फूलों और मौसमी सब्जियों की क्यारियों के साथ-साथ एक बकरी और एक पिल्ला, जिसे वह किसी कूड़ाघर के पास से सुअरों से बचाकर लाया था, उस अदनवाटिका के अंग थे।
उनकी पहली संतान हुई और मज्जी की प्रसन्नता का ठिकाना न था। उसने आकर मां को शुभ समाचार सुनाया और उन्होंने मोहल्ले की अपनी सहेलियों को। सुनकर किसी ने यह आशा व्यक्त की कि यदि वह बच्चा अपनी मां पर जाए तो कितना ही अच्छा हो और सभी ने उसका समर्थन किया। यद्यपि अब मैं साइकिल से स्कूल जाने लगा था, फिर भी कभी-कभी उसके पास चला जाता था। अक्सर तब, जब साइकिल की चेन में ग्रीस लगवानी होती थी या फिर अमरख-इमली आदि खाने की इच्छा हो आती थी। परंतु वो हमारे यहां नियमित रूप से आता रहता था। समय के साथ परिवार में दो बच्चों की वृद्धि और हुई और स्वाभाविक रूप से खर्चों में भी। बढ़ती उम्र के साथ मज्जी की शारीरिक श्रम की क्षमता भी कम हो रही थी और आमदनी भी । एक दिन जब वो मेरी मां से अपनी समस्याओं को बता रहा था तो उन्होंने सलाह दी कि वो अपनी पत्नी से क्यों नहीं कहता कि वो भी कुछ घरों में काम पकड़ ले? ‘अरे नहीं माताजी! उसने भी हमसे एक-आध बार यह कहा लेकिन मैंने ही मना कर दिया...
मैंने कह दिया है कि अभी मेरे अंदर उन सभी को खिलाने की ताकत है ।... ये दुनिया अच्छी नहीं है माताजी! उसे
घर-घर चौका-बर्तन करने नहीं भेजूंगा।’ उसने उत्तेजित स्वर में कहा था। उम्र के साथ प्राथमिकताओं और रुचियों में परिवर्तन के साथ-साथ न जाने क्यों वहां का वातावरण अब पूर्व की भांति आकर्षित करता हुआ महसूस नहीं होता था। पंहुचने पर उसकी पत्नी का तत्काल अंदर चला जाना या खिड़की और दरवाजे को परदे से ढंक लेना- ऐसा पहले तो नहीं होता था! अब किसी आगंतुक की उपस्थिति मानों उसे भारी जान पड़ती थी।
उसका मेरे घर आना भी काफी कम हो चला था।
फिर भी, होली, दीपावली की त्योहारी और ईद पर उसको कुछ पैसे देने के लिए उसको बुलवा भेजना मां को कभी नहीं भूलता था। वो अभी भी पुराने, पहनने योग्य कपड़ों से बर्तन वाले से बर्तन नहीं लेती थीं, बल्कि उसके लिए रख देती थी। समय बीतने के साथ वह और दुर्बल और बीमार ही होता जा रहा था। बीड़ी पीना छोड़ने की सलाह पर वो मुस्कराकर बस कंधे उचका देता था।’
रिक्शा खींचने की ताकत नहीं रही थी अब उसमें। अपना रिक्शा उसने किराए पर उठा दिया था। उसकी पत्नी
भी आस-पास के घरों में कुछ काम करने लगी थी। यह उसने एक दिन बहुत दु:ख के साथ बताया। अंतिम बार उसे घर आए कुछ एक माह हुए थे कि एक दिन मालूम चला कि मज्जी नहीं रहा। ‘उसे टी.बी. हो गई थी।’ पिताजी ने बताया । मुझे दु:ख हुआ। सोचा एक बार उसके घर हो आऊं, देख लूं कि शायद परिवार को किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता हो। लेकिन जब मैं उसके घर जा पाया तब कुछ सप्ताह बीत चुके थे।
वहां चारों ओर सन्नाटा था। फूल और पौधे सूख गए थे।
कहीं कोई हलचल नहीं थी। वे दो जानवर -बकरी और कुत्ता भी नहीं दिखे। पास जाकर देखा तो दरवाजे पर ताला मिला। मैं वापस जाने के लिए उस प्लॉट से बाहर निकल ही रहा था कि एक बुजुर्ग से व्यक्ति को अपनी ओर देखते हुए पाया। ध्यान से देखने पर उन्हें पहचान गया। वो यहीं पड़ोस में रहते थे।
‘क्या आप मज्जी से मिलने आए थे? आपको मालूम नही वो तो गुजर गया कई दिन पहले’- वे बोले। ‘हां मैंने सुना था’- मैंने कहा। ‘सोचा देख लूं परिवार किस हालत में है’ -मैंने आगे जोड़ा। ‘वो लोग तो कहीं चले गए सब सामान लेकर शायद अपने गांव’-उन्होंने बताया।
‘ओह! आखिरी समय बहुत तकलीफ में तो नहीं बीते उसके? टी.बी. थी न उसे? अभी बहुत उम्र भी तो नहीं थी लेकिन बहुत लापरवाही की, शायद उसने अपनी सेहत के साथ?’, मैंने चलते-चलते प्रश्न किया। ‘हां, टी.बी. ही थी ...काम और कमाई दोनों ही बंद हो गई थी इधर। ...लेकिन सच बोलूं तो केवल इतना ही नहीं था टी.बी. से तो वो अब जाकर मरा उसकी मौत तो शायद बहुत पहले हो गई थी।’ मैं विस्मय से उनकी बात सुन रहा था। ‘मैं तो कहता हूं कि उसे इतनी सुंदर महिला से विवाह ही नहीं करना चाहिए था।’ दुनियावी अनुभव और अर्थपूर्ण मुस्कान के साथ बात समाप्त कर वे आगे बढ़ गए।
(शिक्षाशास्त्री एवं कथाकार)
24 एम. आई. जी., म्योराबाद आवास योजना, निकट नेहरू
युवा केंद्र, कमला नगर, इलाहाबाद
डॉ. स्कंद शुक्ल