लघुकथा: ट्यूशनखोर
ऐसा नहीं है कि उसे पैसे की कोई ज्यादा कमी हो। उसके पिताजी की मृत्यु भले ही 40 की उम्र में हो गई हो लेकिन वो उसके लिए एक अदद मकान और कुछ जमा पूंजी भी छोड़ गए थे।
ट्यूशन पाने में वो इतना मशगूल रहता कि उसे खुद के पांचवीं कक्षा में पढ़ रहे बेटे की भी सुध-बुध न रहती। दिनभर इस कॉलोनी से उस कॉलोनी तक बाइक दौड़ाता फिरता। ऐसा नहीं है कि उसे पैसे की कोई ज्यादा कमी हो। उसके पिताजी की मृत्यु भले ही 40 की उम्र में हो गई हो लेकिन वो उसके लिए एक अदद मकान और कुछ जमा पूंजी भी छोड़ गए थे। सरकारी विभाग में थे तो माताजी को नौकरी भी मिल ही गई थी। फिर भी कुछ था जो उसे दिनभर दौड़ने का जुनून देता था।
आज उसने बेटे को अपनी अहमियत जताने की गरज से उसे पढ़ाने की सोची। जो भी सवाल वो बेटे से करता, बेटा उसका जबाब कहीं ज्यादा गहराई से देता। वह आश्चर्य में पड़ गया, जिन सवालों के जवाब उसे
आठवीं-नौंवी के बच्चों से संतुष्टिपूर्वक नहीं मिलते थे उनके जवाब पांचवीं में पढ़ रहा बेटा दे रहा था। उसने कहा, ‘अरे पार्थ तुम तो सब कुछ जानते हो, कहां से सीखा तुमने ये सब?’ ‘पापा, यहां घर में आपने जो इतनी किताबें रख छोड़ी हैं, इन्हें पढ़ लेता हूं। आपके पास तो मेरे लिए समय होता ही नहीं।’
‘अरे मेरा राजा बाबू है तू तो, मेरा नाम रोशन करेगा।’ उसने अपनी खीज मिटाने की गरज से कहा।
‘पापा, दादी ने एक दिन एकलव्य की कहानी सुनाई थी, मुझे लगा गुरु द्रोण आपके रूप में मेरे सामने खड़े हैं।’ शर्मिंदगी के भाव उसके चेहरे पर उभर आए थे।
संदीप तोमर
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