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लघुकथा: हैसियत

विनोद कुमार ने शॉलों और चद्दरों की क्वालिटी को देखते हुए कहा, ‘सत्यनारायण भाई इतनी हैवी नहीं कोई हल्की सी शॉल या चद्दर दिखलाइए।

By Babita KashyapEdited By: Published: Fri, 17 Feb 2017 11:11 AM (IST)Updated: Fri, 17 Feb 2017 11:27 AM (IST)
लघुकथा: हैसियत
लघुकथा: हैसियत

विनोद कुमार जैसे ही दुकान में घुसे दुकान के मालिक सत्यनारायण ने उन्हें आदर से बिठाया।विनोद कुमार ने कहा कि एक ऊनी शॉल या चद्दर दिखलाइए। विनोद कुमार सत्यनारायण की दुकान के पुराने कस्टमर हैं। वो जानते हैं कि विनोद कुमार की पसंद हमेशा ऊंची होती है और पैसे का मुंह देखना वो नहीं जानते। उन्होंने एक से एक बढ़िया ऊनी शॉलों और चद्दरों का ढेर लगा दिया। विनोद कुमार ने शॉलों और चद्दरों की क्वालिटी को देखते हुए कहा, ‘सत्यनारायण भाई इतनी हैवी नहीं कोई हल्की सी शॉल या चद्दर दिखलाइए।’ यह सुनकर सत्यनारायण को विश्वास नहीं हुआ तो उन्होंने कहा, ‘हल्की और आप? क्यों मजाक कर रहे हो

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विनोद बाबू? हल्की शॉल का क्या करेंगे आप?’

विनोद कुमार ने कहा, ‘ऐसा है सत्यनारायण भाई हमारी बहन उर्मिला है न उसकी सास शांतिदेवी के लिए भिजवानी है। उन्होंने कई बार मुझसे कहा है कि विनोद बेटा मुझे एक अच्छी से गरम चद्दर ला दे। तेरी पसंद बड़ी अच्छी होती है। पहले भी तूने एक शॉल लाकर दी थी जो बहुत गरम थी और कई साल चली थी।’ सत्यनारायण ने सामने फैली हुई शॉल और चद्दरों के ढेर को एक तरफ सरकाकर कुछ मीडियम किस्म की शॉलें खोल दीं। विनोद कुमार ने निषेधात्मक मुद्रा में सिर हिलाते हुए कहा कि और दिखलाओ। सत्यनारायण हैरान था पर ग्राहक की मर्जी के सामने लाचार भी। उसने सबसे हल्की शॉलों का बंडल खोला और शॉलें विनोद कुमार के सामने फैला दी। विनोद कुमार ने साढ़े चार सौ रुपए की एक शॉल चुन ली और उसे पैक करवाकर घर ले आए और उसी दिन शाम को उसने वो शॉल बहन की सास को भिजवा दी।

शॉल पाकर शांतिदेवी बड़ी खुश हुईं। ये बात नहीं थी कि शांतिदेवी के घर में किसी चीज की कमी थी या उसके बेटे-बहू उसके लिए कुछ लाकर नहीं देते थे पर वो अपने रिश्तेदारों पर भी अपना हक समझती व जताती रहती थीं। विनोद पर तो वह और भी ज्यादा हक जताती थीं क्योंकि विनोद उन्हें अच्छा लगता था लेकिन विनोद की भेजी हुई शॉल वो पांच-सात बार ही ओढ़ पाई होंगी कि एक दिन रात के वक्त उनके सीने में तेज दर्द हुआ और दो दिन बाद ही रात बारह बजे के आस-पास वो इस संसार से सदा के लिए विदा हो गईं। अंत्येष्टि के लिए अगले दिन दोपहर बारह बजे का समय निश्चित किया गया। सुबह-सुबह सत्यनारायण अपनी दुकान खोल ही रहे थे कि विनोद कुमार वहां पहुंचे और कहा, ‘भाई उर्मिला की सास गुजर गईं, एक शॉल दे दो।’

सत्यनारायण ने बड़े अफसोस के साथ कहा, ‘ओह! अभी कुछ दिन पहले ही तो आप उनके लिए गरम शॉल लेकर गए थे। कितने दिन ओढ़ पाईं बेचारी?’ उसके बाद सत्यनारायण ने शॉल का एक बंडल उठाकर खोला और उसमें कुछ शॉलें निकालीं। विनोद कुमार ने देखीं तो उनका चेहरा बिगड़ सा गया और उन्होंने कहा कि भाई जरा ढंग की निकालो। कई बंडल खुलवाने के बाद विनोद कुमार ने जो शॉल पसंद की उसकी कीमत थी पच्चीस सौ रुपए। सत्यनारायण ने कहा, ‘विनोद बाबू वैसे आपकी मर्जी पर मुर्दे पर इतनी महंगी चद्दर कौन डालता है?’ विनोद कुमार ने कहा, ‘बात महंगी-सस्ती की नहीं हैसियत की होती है। उर्मिला की ससुरालवालों और उनके दूसरे रिश्तेदारों को पता तो चलना चाहिए कि उर्मिला के भाई की हैसियत क्या है और उनकी पसंद कितनी

ऊंची है?’

सीताराम गुप्ता

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