लघुकथा: मेंढक का रखवाला
जैसे ही सैनिकों ने पत्थर के दो टुकड़े किए, एक अविश्वश्नीय दृश्य दिखा। पत्थर के बीचो-बीच कुछ पानी जमा था और उसमेंं एक छोटा सा मेंढक रह रहा था।
एक राजा अपनी वीरता और सुशासन के लिए प्रसिद्ध था। एक बार वो अपने गुरु के साथ भ्रमण कर रहा था, राज्य की समृद्धि और खुशहाली देखकर उसके भीतर घमंड के भाव आने लगे और वो मन ही मन सोचने लगे, 'सचमुच, मैं एक महान राजा हूंं, मैं कितने अच्छे से अपने प्रजा देखभाल करता हूं।
गुरु सर्वज्ञानी थे, वे तुरंत ही अपने शिष्य के भावों को समझ गए और तत्काल उसे सुधारने का निर्णय लिया। रास्ते में ही एक बड़ा सा पत्थर पड़ा था, गुरु जी ने सैनिकों को उसे तोड़ने का निर्देश दिया। जैसे ही सैनिकों ने पत्थर के दो टुकड़े किए, एक अविश्वश्नीय दृश्य दिखा। पत्थर के बीचो-बीच कुछ पानी जमा था और उसमेंं एक छोटा सा मेंढक रह रहा था। पत्थर टूटते ही वो अपनी कैद से निकल कर भागा। सब अचरज में थे की आखिर वो इस तरह कैसे कैद हो गया और इस स्थिति में भी वो अब तक जीवित कैसे था ?
अब गुरु जी राजा की तरफ पलटेंं और पुछा, 'अगर आप ऐसा सोचते हैं कि आप इस राज्य में हर किसी का ध्यान रख रहे हैं, सबको पाल-पोष रहे हैं, तो बताइए पत्थरों के बीच फंसे उस मेंढक का ध्यान कौन रख रहा था, बताइए कौन है इस मेंढक का रखवाला ?'
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राजा को अपनी गलती का एहसास हो चुका था, उसने अपने अभिमान पर पछतावा होने लगा। गुरु की कृपा से वे जान चुका था कि वो ईश्वर ही है जिसने हर एक जीव को बनाया है और वही है जो सबका ध्यान रखता है।