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लघुकथाएं

मैंने थोड़ा-सा दाईं तरफ खिसककर उस व्यक्ति के सिर के ऊपर भी छतरी करनी चाही, मगर मेरी इस हरकत पर वह व्यक्ति एकदम से भड़क उठा, 'सीधी तरह खड़े नहीं हो सकते क्या?

By Babita KashyapEdited By: Published: Wed, 12 Apr 2017 02:33 PM (IST)Updated: Wed, 12 Apr 2017 02:49 PM (IST)
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 छतरी

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लोकल बस के इंतजार में बस स्टॉप पर कोई शेड वगैरह नहीं था सिर्फ एक पोल पर लगे बोर्ड से पता चलता था कि वह बस स्टॉप है। अचानक हल्की-हल्की सी बूंदाबांदी होने लगी। संयोग से मेरे पास छतरी थी, इसलिए मैंने उसे खोलकर अपने सिर पर कर लिया। तभी यह सोचकर कि मेरे पास खड़े व्यक्ति पर भी बारिश पड़ रही होगी, मैंने थोड़ा-सा दाईं तरफ खिसककर उस व्यक्ति के सिर के ऊपर भी छतरी करनी चाही, मगर मेरी इस हरकत पर वह व्यक्ति एकदम से भड़क उठा, 'सीधी तरह खड़े नहीं हो सकते क्या? बारिश से च्यादा पानी तो आपके छाते से टपककर मुझे भिगो रहा है।'

हरीश कुमार 'अमित' 304, एम.एस.4, केंद्रीय विहार, सेक्टर 56,

गुडग़ांव-122011 (हरियाणा)

सिर ऊंचा

इधर कुआं उधर खाई थी। बीच में लटक गए थे बाबूजी। जिंदगीभर की पूंजी, तीन लाख रुपए गुंडों को दे देते हैं तो उनके और उनकी पत्नी के लिए दाल-रोटी और दवा-दारू का इंतजाम कैसे होगा? पैसे नहीं देते हैं तो संतानमोह आड़े आता है। सुरेश भले ही आवारा, निकम्मा, सट्टेबाज है पर है तो बेटा। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि सट्टा उन्होंने खेला है या लड़के ने।

सुरेश ने तो मुंह लटकाकर कह दिया था, 'बाबूजी, सट्टे में तीन लाख रुपए हार गया हूं। मेरे पास तो है नहीं। आप दे दो तो बच जाऊंगा वर्ना वो मुझे जिंदा नहीं छोड़ेंगे। उनके हाथों मरने से अच्छा है मैं खुद ही आत्महत्या कर लूं?Ó

तड़पकर रह गए थे बाबूजी। पैसे देते हैं तो खुद मरते हैं नहीं देते तो भी मरते हैं या फिर संतान भी एक किस्म का सट्टा ही होती है।

क्या नहीं किया था बेटे के लिए। अच्छी से अच्छी ट्यूशन, अच्छी खुराक, पर वह नवीं कक्षा से आगे पढ़ नहीं पाया और बेटी सुमन के लिए तो उन्होंने कुछ किया ही नहीं फिर भी वो हमेशा पढ़ाई में अव्वल लेकिन बेटी तो पराया धन है। उसका होना न होना बराबर है। गुंडे उनके घर के बाहर गालियां बक रहे थे। आस-पड़ोस के लोग घरों से निकलकर देख रहे थे। बाबूजी शर्म से गड़े जा रहे थे।

जब बर्दाश्त नहीं हुआ तो एकाएक चेकबुक निकाली, साईन करके सुरेश को देते हुए बोले, 'बैंक से कैश कराकर दे दो इन्हें। वह सिर झुकाकर चला गया।' शाम हो गई थी।

पत्नी ने सामान की लिस्ट थमाते हुए उन्हें कहा, 'बाजार से कुछ सामान ले आओ। जो होना था हो गया। मिट्टी डालो उस पर। जल्दी जाओ अंधेरा हो गया तो आपको परेशानी होगी।Ó मरे मन से लिस्ट और थैला लेकर घर से निकले। किराने की दुकान पर खासी भीड़ थी। दुकानदार ग्राहकों का काम निपटाने में लगा था। वे पीछे ही खड़े हो गए। एकाएक दुकानदार की नजर उन पर पड़ी तो बोला, 'सर आप!

आइए। ये सामान की लिस्ट मुझे दीजिए।Ó उनसे पर्ची लेकर अपने नौकर को देते हुए कहा, 'छोटे लाला पहले इन सरजी का सामान पैक कर दे। जानता है, ये मजिस्ट्रेट सुमन सरीन जी हैं न? ये उनके फादर साहब हैं। हां...हां... मजिस्ट्रेट 

साहिबा इनकी सगी बेटी हैं।'

वहां मौजूद सभी की नजरें उसकी ओर उठ गईं। अच्छा, ये सुमन सरीन जी के पिता हैं? मजिस्ट्रेट साहिबा के फादर?

सामान लेकर वापस लौटते हुए भी लोगों की सम्मान और प्रशंसा भरी निगाहें उन पर लगी थीं। वे जो चाहते थे वो बेटे नहीं बेटी ने कर दिखाया था। गर्व से उनका सीना चौड़ा और सिर ऊंचा हो आया था।

कमल चोपड़ा

1600/114, त्रिनगर, दिल्ली-110035

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