स्वाध्याय का सबक
इंजीनियर बनने की राह में आ रहे तमाम गतिरोध और भ्रम उस समय दूर हो गए, जब एक युवक अपने बाबा से मिला... मैं जब बारहवीं कक्षा में पहुंचा तो परिवार के सभी लोगों की अपेक्षाएं मुझे इंजीनियरिंग में एडमीशन दिलाने के प्रति बहुत अधिक बढ़ गईं। जिसे देखो, वही तरह-तरह
इंजीनियर बनने की राह में आ रहे तमाम गतिरोध और भ्रम उस समय दूर हो गए, जब एक युवक अपने बाबा से मिला...
मैं जब बारहवीं कक्षा में पहुंचा तो परिवार के सभी लोगों की अपेक्षाएं मुझे इंजीनियरिंग में एडमीशन दिलाने के प्रति बहुत अधिक बढ़ गईं। जिसे देखो, वही तरह-तरह के सुझाव-सलाह और निर्देश देता रहता। पापा ने फिजिक्स, केमिस्ट्री और मैथमेटिक्स तीनों विषयों की कोचिंग लगवा दी।
लगभग 8 किलोमीटर दूर मैं एक अच्छे स्कूल में जाता, वहां पढ़ाई करता। वापस आने में मुझे लगभग 8 घंटे लग जाते। बाद में तीनों विषयों की विभिन्न स्थानों की साइकिल द्वारा कोचिंग भी करता। मैं पूरी तरह थक जाता, सो घर पर कुछ पढ़ाई नहीं हो पाती और न ही पिछले वर्षों के प्रश्नपत्रों को हल करने में समय दे पाता।
एक बार मैं अपने बाबा के पास इलाहाबाद गया था। वे रेलवे में मुख्य यांंत्रिक अभियंता पद से सेवानिवृत्त हुए थे। मैंने उन्हें अपनी समस्या बताई तथा उनसे इंजीनियरिंग में एडमिशन लेने और इंजीनियर बनने के विषय में सलाह मांगी। वे अपने बारे में मुझे बताने लगे। उन्होंने बताया कि उनके माता-पिता की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी और उनकी तरफ से उन्हें इंजीनियर बनाने के लिए न तो कोई दबाव था और न ही वे उन्हें कोचिंग या ट्यूशन दिलाने में ही सक्षम थे। बाबा ने बताया कि उन्होंने मन में ठान लिया था कि उन्हें इंजीनियरिंग में एडमिशन लेना ही है। इसलिए उपलब्ध सीमित साधनों का अधिकतम उपयोग उन्होंने किया। अपने मित्रों से अतिरिक्त पुस्तकें एक-दो दिनों के लिए मांग कर रात-रात भर जागकर उनसे नोट्स तैयार किए, पुरानी परीक्षाओं के प्रश्न-पत्र लेकर हल किए। स्पष्ट है कि अपने इस जुझारूपन को मूर्त रूप देने के लिए उनके पास घर में समय था। उन्होंने बताया कि 'सेल्फ स्टडी इज द बेस्ट स्टडी'। उनकी बात सुनकर मेरा जागरण हुआ। मैं सोचने लगा कि मैं तो अपना समय कोचिंग में गंवा रहा था, जहां स्कूल पैटर्न पर ही सिलेबस की रूटीन स्टडी कराई जाती है।
मैंने पापा को बाबा का हवाला देते हुए कोचिंग छोड़ने के लिए मनाया। फिर घर पर ही गहन अध्ययन में जुट गया। मुझे समझ में आ गया था कि असंभव कुछ भी नहीं। मुझमें आत्मविश्वास सृजित हो गया था। बाबा के जुझारूपन को अब मैंने अपनी आदत बना लिया था। अब मेरे जीवन की दिशा ही बदल चुकी थी।
कुशाग्र श्रीवास्तव, फैजाबाद (उत्तर प्रदेश)