गुटखे का बैन और असहिष्णुता की आहट
पूरा प्रदेश भारीमन से ही सही पर बधाईयां गा तो रहा है। गायन बड़ी बात है, वजह चाहे जो हो। यदि उपयुक्त कारण नहीं है, तो भी।
यूपी में तुरंत प्रभाव से सचिवालय में गुटखे के सेवन पर बैन लगा। यह असहिष्णु समय की पहली पदचाप है।
सिर्फ आहट नहीं समूची पानवादी अर्वाचीन संस्कृति पर कुठाराघात जैसा भी कुछ है। यह कत्था, चूना और सुपारी
के साथ किया जाने वाला सरासर आघात है। सुपारी के आदान-प्रदान पर पहला प्रत्यक्ष प्रहार है। यह दμतर के बड़े
बाबू से लेकर चपरासी तक के रंगे हुए सरकारी मुखारबिंदों के खिलाफ गहरी साजिश है। ‘आक्थू’ की आजादी पर
सीधा हमला है। अलबत्ता फिर भी जो हुआ सो हुआ, बधाई हो।
पूरा प्रदेश भारीमन से ही सही पर बधाईयां गा तो रहा है। गायन बड़ी बात है, वजह चाहे जो हो। यदि उपयुक्त कारण नहीं है, तो भी। कुमार गंधर्व गाएं या योयो जी गाएं, साधुवाद सभी के लिए रहता है। इस तरह के प्रसंग में हम कोई कोताही नहीं बरतते। असहमति के लिए निरर्थक तर्क नहीं गढ़ते। जैज बजता है तो पैर थिरका लेते हैं, आरती बजती है तो गर्दनें हिला और हिलवा लेते हैं। विचित्र वीणा या संतूर बजता है तो सर खुजाते हुए वाह-वाह टाइप आह भर लेते हैं। सराहने के सराहनीय काम में हम जन्मना निपुण नागरिक के रिश्ते में वंशज होते हैं। तालियां बजाने और बधाईयां देने के लिए हम उचित मौके अंतत: तलाश ही लेते हैं। कोई केले के छिलके पर फिसलकर गिरा, बायां हाथ फ्रेक्चर हुआ तो दाएं हाथ को मुबारकबाद। पुत्ररत्न पाने की बड़ी उम्मीद लगा रखी थी, बेटी प्रकट हुईं तो जनसंख्या में लैंगिक अनुपात के सलामत बने रहने की हार्दिक बधाई। बिल्ली कबूतर को दबोचने ही वाली थी कि खटका हुआ, कबूतर उड़ गया तो भी खटरपटर के प्रति आभार।
बधाई एक बहुआयामी और इकोफ्रेंडली शब्द है। इको यानि अनुगूंज, फ्रेंडली माने मित्रवत। कुल िमलाकर मित्रवत अनुगुंजित अनुगुंफित अभिव्यक्ति। बात जितनी उलझाकर कही जाए, उसकी उतनी अधिक महत्ता। आला दर्जे की बतकही। उत्तम विमर्श का प्रादुर्भाव। सोशल साइट पर यह ‘लाइक’ का सहोदर है। कोई जिए या मरे, कम से कम, एक अदद लाइक तो बनता ही है। वस्तुत: बधाई लाइक का वाचिक विस्तार है। बधाई कह देने भर से सरोकार और स्वामी-भक्ति के निहितार्थ दोनों स्वत: स्पष्ट हो जाते हैं। बधाई एक गंधयुक्त, पारदर्शी और जिंदा लμज है।
इसमें से केसरयुक्त पान-मसाले की बेमिसाल महक आती है। हालांकि इसमें से कुछ लोग कसैले जायके का सुराग पाकर मदमस्त होते भी देखे जाते रहे हैं। कुछ तो इतने गुणी हैं कि तब तक बधाई-बधाई दोहराते रहते थे, जब तक उनका मुंह गुटखे या मिष्ठान से नहीं भर दिया जाता। एक तरह से देखा जाए तो गुटखा लोकाचार में लगने वाला हींग-जीरे का लाजवाब छौंक है। जब तक सरोकार का असल मंतव्य स्पष्ट न हो, तब तक तो मुख के खालीपन से ही काम चलाना होगा। इस रिक्तता को सरकार के पक्ष में वाहवाही से भरना होगा। फिलहाल मीडिया के स्वनामधन्य विचारकों से लेकर
मोहल्ला स्तर के विदूषक तक यही काम कर रहे हैं। गली-गली, मोहल्ला- मोहल्ला और घर-घर आइडियोलॉजी की जुगाली कर रहे हैं।
अब यक्षप्रश्न यह है कि गुटखे को गटके बिना सरकारी परिसर की खाली दरो-दीवारों का और हमारे सौंदर्यबोध का क्या होगा? भित्तिचित्रों के प्रति युगीन भावुकता का क्या बनेगा? हमारी पक्षधरता के कत्थई छींटे दूसरे की उजली कमीज तक कैसे पहुंचेंगे? सवाल तमाम हैं लेकिन सवालों से बड़ी सरकार की फटकार है। यह तो शुरुआत है सरकार बहादुर की हनक की भनक भर है। सांस रोककर देखिए और गुटखे को मुख तक ले जाने वाला कोई फूलप्रूफ चौर्य मार्ग तलाशिए। पिक्चर अभी बाकी है। यह तो सिर्फ झलक है। मुंह को सावधानीपूर्वक बंद रखें। बतकही हर हाल में जारी रहनी ही चाहिए। इस वक्त मौका भी है और दस्तूर तो खैर है ही। आगे-आगे देखते रहें कि दरअसल होता है क्या? जो होगा, देखा जाएगा। उसी तरह से देखा-परखा और उच्चारा जाएगा जिस तरीके से हमारे पूर्वज इसे युगों-युगों से करते आए हैं।
दर्शना गुप्ता
(नवोदित प्रखर व्यंग्यकार)
द्वारा श्री प्रशांत गुप्ता, 101- सी थर्ड μलोर, कुंदन प्लाजा, हरिनगर आश्रम