नवसंवत्सर के मेघ
नवसंवत्सर के मेघ तुम जाओ दूर किसी परदेस नहीं चाहिए हीरे का भी ओला ना अमृत की बूंद भी एक जगराते कर कर मझले ने
नवसंवत्सर के मेघ
तुम जाओ दूर किसी परदेस
नहीं चाहिए हीरे का भी ओला
ना अमृत की बूंद भी एक
जगराते कर कर मझले ने
बोई थी अघन अगेती
नम धरती में अपनी नींद (गेहूं की
फसल)
जब उपजी बन वो हरियाली
बलि किए थे छोटे ने उस पर अपने सारे
चैन
बरसे पाले, कौहरे बरसे
सर्दी के मौसम ने लईं परीक्षा
अनेकानेक
बो खेतों में जागे
जागी मैं खटिया पर शेष
कांपूं हूं मैं गरम चैत में
याद करूं जो पूस-माह की रातें जिनमें
बड़के और उसके बापू के
मेड़ बांधते, पानी देते, हाथ पांव गए थे
ऐंठ
मेरी बिनती पर तुम रूठ गए थे
बीते बरस चारेक
आए नहींथे फिर कर
फिर तुम साावन-भादों में भी
मान मनव्वल के मैंने
कितने गाए गीत विसेस
याद करूं तो तड़प पड़ूं हूं
नहीं मिला था बरस भरे तक
बच्चों तक को चावल का दाना भी
एक
मत फैलाओ बरस भरे की रोटी पर
ये घने भयानक काले केस।
निर्देश निधि
संपर्क: द्वारा डा. प्रमोद निधि, विद्या
भवन, कचहरी रोड, बुलंदशहर-20300