कहानी (बाल दिवस): निर्दोष सलाह
क्यों चलते-चलते किसी के फिसलकर गिर पडऩे और चोटिल हो जाने पर सहारा देकर उठाने के बजाय लोग उस पर हंसें? क्या यही है मानवता!
नरेंद्र को हर सप्ताह की तरह आज भी मॉल जाना है। घर के लिए तो जरूरी सामान लेना ही है, बेटे के लिए भी दो टी-शर्ट लेनी हैं। स्कूल ने डिजिटल कैंपस पर सूचित किया है और कुछ ले-न ले लेकिन बेटे के लिए तो जाना ही है। छुट्टी के दिन घर में इतने काम होते हैं कि लेखा का निकलना नहीं हो पाता। वह दोपहर से कुछ समय पहले मॉल जाने के लिए निकला।
जबसे मॉल कल्चर विकसित हुआ है तब से बड़े शहरों में लोग एक छत के नीचे खरीददारी करने के आदी होते जा रहे हैं। हालांकि, ऐसा न कर पाने वालों की भी एक अच्छी-खासी संख्या है। ये लोग मॉल में घुसते भी नहीं। मेटल डिटेक्टर के सामने जाने से झिझकने वाले ऐसे लोगों के मन में एक विचित्र सी कुंठा भी होती है कि चमचमाते लोगों के बीच किस तरह शामिल हों इसलिए ऐसे लोगों के लिए नकली ब्रांड ही असली हैं जो उन्हें सड़क की पटरी पर मिल जाते हैं और मॉल में असली समझकर चीजें खरीदनेवाले वे लोग जिनकी जेब में क्रय शक्ति है, नकली को भी असली समझने के झांसे में आ जाते हैं।
दोनों तबके खुश हैं। धोखे में भी खुशी मिलती है। कस्बों के दुकानदार कहते हैं, 'भाईसाहब , बीस रुपए की यह बनियान लोग मॉल से दो सौ की हंसते-हंसते खरीदते हैं लेकिन हमारी दुकान पर बीस रुपए देते वही लोग हुज्जत करते हैं। हमारा कारोबार तो मिट रहा है लेकिन एक दिन लोग वापस लौटेंगे। लूट का यह कारोबार सबकी समझ में आ जाएगा।'
उनकी आंखों में उम्मीद की किरण है। दोनों वर्ग एक-दूसरे को झांसा देते जी रहे हैं। बाजार इसी का नाम है। लोग हफ्ते-दस दिन की जरूरत का सामान मॉल से लाने लगे हैं। मॉल में जाना और उसकी चर्चा करना भी आजकल स्टे्टस सिंबल में आता है।
सच जो भी हो, मेरी इस कहानी के नायक का मामला उसके बचपन से जुड़ा है जिसमें इस बात की संभावना ही सच है कि उसे उसकी पसंद की ब्रांडेड टी-शर्ट चाहिए थी जिसे पहनकर वह अपने साथियों के बीच अपना जलवा भी उसी तरह दिखा सके जैसे उसके दोस्त दिखाते आ रहे हैं। अनुराग ने अपने पापा से कहा, 'डेनिम की ही लाइएगा।' -'ला दूंगा।'
शहर के सबसे बड़े मॉल में बहुत भीड़ थी।
हफ्ते की छुट्टी का दिन था। रोशनी में डूबे तीन-चार मंजिले वाले उस मॉल की जगमग हर मंजिल पर लोग इधर-उधर जाते और खरीददारी करते दिखाई पड़ रहे थे लेकिन सबसे अधिक भीड़ मॉल के उस हिस्से में थी जहां घर-परिवार की जरूरत का सामान मिल रहा था। लोग खाने-पीने की चीजें खरीदने में लगे थे। हर सामान पैकेट में रखा था। पैकेटों पर उस सामान का भार भी लिखा था। प्राय: सबके पास बास्केट या ट्रॉली थी जिसमें वे स्टोर से अपनी जरूरत की चीजें रख रहे थे। कुछ लोगों के पास तो जो ट्रॉली थी वह लगभग पूरी भर चुकी थी। लगता था कि वे लोग सब कुछ खरीद लेना चाहते थे। जरूरत का हर सामान वहां मौजूद था।
लोगों की उस भीड़ में नरेंद्र भी था। उसे भी अपने परिवार के लिए जरूरी चीजें लेनी थीं। वैसे तो उसका परिवार छोटा था। उसकी पत्नी लेखा और बच्चा अनुराग। अनुराग दस वर्ष का था और शहर के ही एक स्कूल में पांचवीं में
पढ़ता था। नरेंद्र ने भी हफ्ते भर के लिए राशन-पानी खरीदा। उसने फल और सूखे मेवे भी लिए। अनुराग के लिए डेनिम के आउटलेट से दो शर्ट लीं। अब उसे खरीदे हुए सामान का मूल्य चुकाना था।
लोग जो कुछ खरीदते थे उस पर मूल्य लिखा होता था जिसका भुगतान मॉल के निकास पर लगे कई काउंटरों में से किसी एक पर किया जा सकता था। सभी काउंटरों पर कोई युवक या युवती होती जो ट्राली में रखे सामान को एक-एककर उठाते और उसे कीमत को पहचानने वाले सेंसर केसामने जैसे ही रखते, उस सामान का दाम मशीन में दर्ज हो जाता। लोग उन काउंटरों के आगे तरीके से पंक्तिबद्ध खड़े रहते और अपनी बारी की प्रतीक्षा करते। सबकुछ अच्छी तरह से चल रहा था।
नरेंद्र भी अपनी ट्राली को लिए एक पंक्ति की ओर बढ़ा। तभी एक दुर्घटना हो गई। चमचमाती टाइल्स पर उसका पैर फिसला और खुद को संभालने की कोशिश में ट्राली उसके हाथ से छूट गई। वह गिर पड़ा। ट्राली में रखा कुछ सामान भी फर्श पर था। लोग उस पर हंसने लगे। वह उठने की कोशिश करता लेकिन फिर बैठ जाता। उसके घुटने में चोट आई थी। लोग शायद इस बात पर हंस रहे थे कि इतना बड़ा आदमी और गिर पड़ा, उठ भी नहीं पा रहा। लोग शायद यह सोच भी नहीं रहे थे कि नरेंद्र को चोट भी आई है। कोई उसकी सहायता के लिए तुरंत आगे नहीं बढ़ा। नरेंद्र को अपनी इस हालत पर थोड़ी शर्म भी आई कि लोग उसे इस हाल में देखकर उसके बारे में न जाने क्या सोच रहे होंगे! उसे दु:ख भी हो रहा था कि लोग उसे उठाने की जगह उसका मजाक बना रहे थे।
पंद्रह-बीस सेकेंड ही और लगे होंगे कि अपने एक हाथ से जमीन का सहारा और दूसरे हाथ से चोट लगे घुटने को पकड़े नरेंद्र उठ खड़ा हुआ। फर्श पर बिखरे सामान को उसने ट्राली में रखा और धीरे-धीरे चलता हुआ ट्राली के साथ वह भी पंक्ति में खड़ा हो गया। वह जब तक काउंटर तक पहुंचता तबतक वहां खड़े लोग उसके साथ हुई दुर्घटना को भूल चुके थे लेकिन उसके घुटने में दर्द रह-रहकर चिलक उठता जिससे उसके ओठ भिंच जाते थे। इतनी जल्दी
दर्द को भूलना उसके लिए तो मुश्किल था।
खरीदे गए सामान का भुगतान करके वह पार्किंग एरिया में अपनी कार तक आया। उसे चलने में तकलीफ हो रही थी लेकिन इस तकलीफ से भी अधिक नरेंद्र को दु:ख इस बात का हो रहा था कि दुनिया क्या इतनी पत्थर हो गई है कि उसे किसी के दु:ख से कोई लेना-देना नहीं बचा। क्यों चलते-चलते फिसलकर किसी के गिर पडऩे पर लोग उसे उठने में मदद देने के बदले उस पर हंसें? क्या यह मानवता है! उसके भीतर एक छटपटाहट थी जो उसे मथ रही थी।
नरेंद्र ने अपने फ्लैट के दरवाजे पर पहुंचकर बेल दबाई। लेखा ने दरवाजा खोला। अनुराग किसी वीडियो गेम में उलझा था। नरेंद्र को लंगड़ाते हुए देख लेखा चौंकी, 'क्या हुआ?' 'कुछ नहीं, बस ऐसे ही जरा-सी चोट लग गई।'अपने पापा की बात को अनुराग ने भी सुना। वह भी खेल छोड़कर पापा के पास आ
गया और चकित-सा देखने लगा, 'क्या हुआ पापा...कैसे चोट लगी?'
नरेंद्र ने सारा किस्सा सुना दिया। अनुराग सब सुनता रहा। न जाने अनुराग को यह घटना विचित्र-सी क्यों लगती रही। उसने पूछा, 'पापा, किसी ने आपको उठाया नहीं?' 'नहीं बेटे, सभी लोग तो हंस रहे थे।' 'रेडिकुलस ...! आपकी हेल्प किसी ने नहीं की?' 'हेल्प? सभी तो हंस रहे थे ...और मैं उठ भी नहीं पा रहा था।'
'नरेंद्र, चलो डॉक्टर को दिखा लो।' लेखा ने कहा। 'शाम को चलूंगा, आज फ्राइडे है।
पांच बजे के बाद।' वह सोफे पर बैठ गया। घर में एक चुप-सा माहौल ठहर गया। 'पापा, मुझे लगता है कि अब बड़े लोगों को भी स्कूल जाना चाहिए।' नरेंद्र मुस्करा दिया,'क्यों बेटे?'
'पापा, स्कूल में सिखाया जाता है कि जरूरतमंद की मदद करो, किसी का मजाक न उड़ाओ। किसी को तकलीफ मत दो। आप जहां गिरे वहां जितने भी बड़े लोग थे वे सब भूल चुके हैं कि उन्हें स्कूल में क्या सिखाया गया था। उन सबको दुबारा स्कूल में पढऩा चाहिए। स्कूल में यही सब तो सिखाया जाता है।' 'हां, बेटे, तुम सही कह रहे हो।' नरेंद्र ने अनुराग को गोद में भर लिया।
'बेटे, मुझे चोट तब कम लगी थी जब मैं फिसलकर गिरा था लेकिन अब ज्यादा महसूस हो रही है। मुझे लगता है कि मैं नहीं गिरा, जमाना गिर गया है।'
पो.बॉ.-46492 आबू धाबी