यथार्थ से निकलती है कृति
पत्रकार, लेखक और ब्लॉगर अनंत विजय अपनी लेखनी में सिर्फ आम जन से जुड़े मुद्दों को उठाते हैं और इसीलिए उनकी कृतियां यथार्थ के ठोस धरातल पर रची हुई होती हैं। स्मिता से हुई उनकी वार्ता के संपादित अंश.. साहित्य हो या पत्रकारिता, आम लोगों से जुड़े मुद्दों को गंभीरता से उठाते हैं अनंत विजय। वे न सिर्फ राजनीति और राजनीतिज्ञों के दांव-
पत्रकार, लेखक और ब्लॉगर अनंत विजय अपनी लेखनी में सिर्फ आम जन से जुड़े मुद्दों को उठाते हैं और इसीलिए उनकी कृतियां यथार्थ के ठोस धरातल पर रची हुई होती हैं। स्मिता से हुई उनकी वार्ता के संपादित अंश..
साहित्य हो या पत्रकारिता, आम लोगों से जुड़े मुद्दों को गंभीरता से उठाते हैं अनंत विजय। वे न सिर्फ राजनीति और राजनीतिज्ञों के दांव-पेंच पर बखूबी अपनी कलम चलाते हैं, बल्कि भाषा और साहित्य के लिए गंभीर आलेख और किताबें भी लिखते हैं। अनंत चर्चित ब्लॉगर भी हैं। हाल में उन्होंने च्विधाओं का विन्यास' किताब लिखी है, जिसकी तारीफ हिंदी के आधार स्तंभ नामवर सिंह ने भी की है। टीवी पत्रकारिता जैसा श्रमसाध्य काम करने के बावजूद वे अपनी साहित्यिक कृतियों को बुनने के लिए समय निकाल लेते हैं। अब तक उनकी चार किताबें 'प्रसंगवश', 'कोलाहल कलह में', 'मेरे पात्र' (संपादित) और च्विधाओं का विन्यास' प्रकाशित हो चुकी हैं। वे उम्मीद कर रहे हैं कि इस वर्ष के अंत तक उनकी दो और किताबें प्रकाशित हो जाएंगी। एक राजनीतिक टिप्पणियों का संग्रह है और दूसरी ग्लोबल सांस्कृतिक परिदृश्य पर आधारित है। इसके अलावा, वे एक महात्वाकांक्षी योजना पर भी काम कर रहे हैं, जिसके केंद्र में 'मां' है। उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश..
जब आप कुछ लिखते हैं और उसकी तारीफ बड़े साहित्यकार करते हैं, तो कैसा लगता है?
बड़े साहित्यकारों की तारीफ से लिखने का हौसला बढ़ता है। नामवर जी ने जब मेरी किताब 'विधाओं का विन्यास' की जमकर तारीफ की तो लगा कि सालों की मेहनत को पहचान मिल गई। वे हर वक्त खुद को साहित्य जगत की हलचलों से लैस करते रहते हैं, जिसकी वजह से उनसे इसका कोई कोना नहीं छूटता है। वे इस उम्र में भी इतने सजग हैं कि आज हिंदी साहित्य में उनका कोई मुकाबला नहीं है। उन्हें कहीं से जानकारी मिली, तो उन्होंने फोन करके मेरी किताब मंगवाई और फिर उस पर अपनी राय दी।
क्या ताजातरीन घटनाएं आपको कहानियां लिखने के लिए प्रेरित करती हैं?
कहानी लिखने का बहुत मन करता है। कई विषय बहुत लुभाते हैं। एक उपन्यास पर काम शुरू भी किया था लेकिन काहिली की वजह से वह साठ-सत्तर पृष्ठों से आगे नहीं बढ़ पा रहा है। यह उपन्यास (अगर लिखा जा सका तो) राजनीतिक साजिश और कत्ल पर केंद्रित हो सकता है। हमारे देश में पॉलिटिकल एसोसिएशन पर कम काम हुआ है। मुझे यात्रावृतांत लिखने में भी मजा आता है। अपनी दक्षिण अफ्रीका यात्रा पर मैंने विस्तार से लिखा है। वर्धा के गांधी आश्रम की यात्रा भी की है, जिस पर लिखना अभी बाकी है।
क्या छोटी उम्र से ही लेखक बनना चाहते थे?
ऐसा नहीं कह सकता कि छोटी उम्र से ही लेखक बनना चाहता था। घर का माहौल साहित्यिक था। मेरे पिताजी प्रोफेसर ब्रजकिशोर सिन्हा के मित्र गोपाल सिंह नेपाली थे। दोनों में गहरी छनती थी। पिताजी के पास साहित्यिक किताबों का भंडार था। उन सबों को पढ़ते-पढ़ते साहित्य की ओर कदम खुद-ब-खुद बढ़ते चले गए। कॉलेज के जमाने से मैं लिखता था लेकिन छपने भेजने का साहस नहीं होता था। अब अफसोस होता है कि उस जमाने का लिखा हुआ कुछ भी मेरे पास नहीं है। संपादक के नाम खूब पत्र लिखा करता था, जो बहुधा छप जाया करते थे।
पहली बार आपकी कहानी या आलेख कब प्रकाशित हुए?
मेरा पहला लेख कहां छपा, यह ठीक से मुझे याद नहीं है लेकिन जब मैंने विधिवत लेखन की शुरुआत की तो पहला आलेख जमालपुर से रमेश नीलकमल के संपादन में निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका 'कारखाना' में छपी। इसके बाद कई साहित्यिक पत्रिकाओं में मेरे लेख छपे। पटना से प्रकाशित दैनिकों में भी साहित्य-संस्कृति पर मेरी कई टिप्पणियां प्रकाशित हुईं।
आपके प्रिय रचनाकार कौन-कौन हैं?
हिंदी में मेरे प्रिय रचनाकार रामधारी सिंह 'दिनकर' और सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन च्अज्ञेय' हैं। इन दोनों की रेंज बहुत व्यापक है। अभी कुछ दिनों पहले मैंने दिनकर रचनावली पढ़कर खत्म की है। दिनकर जितने बड़े कवि थे, उससे भी बड़े गद्यकार। उनकी राजनीतिक टिप्पणियां इस वक्त भी मौजू हैं। अज्ञेय हिंदी के बहुत बड़े लेखक हैं। इन दोनों का मूल्यांकन होना अभी भी शेष है। विदेशी लेखकों में जोनाथन फ्रेंजन और एमा डोनोग बहुत पसंद हैं। फ्रेंजन का उपन्यास 'फ्रीडम' और डोनोग का 'रूम' बेहतरीन कृति है।
लिखने के लिए यथार्थ और काल्पनिकता का कितना सहारा लेना पड़ता है?
जिस तरह का मेरा लेखन है उसमें तो यथार्थ ही यथार्थ है, इसमें कल्पना की गुंजाइश नहीं है। मेरा मानना है कि किसी भी कृति का प्लॉट तो यथार्थ से ही उठाया जाता है। फिर उसमें कल्पना का तड़का लगाकर उसे आगे बढ़ाया जाता है। पिछले साल मेरे संपादन में एक किताब आई थी 'मेरे पात्र'। इसमें हिंदी की तीन पीढ़ी के सारे अहम रचनाकारों ने पात्रों के चयन की प्रक्रिया के बारे में विस्तार से बताया है। ज्यादातर की राय यही है कि यथार्थ को हमेशा कल्पना की सीढ़ी की जरूरत पड़ती है।
पत्रकारिता, ब्लॉग, किताब लेखन इतना सब कुछ आप किस तरह मैनेज करते हैं?
एक शब्द में इसका जवाब है कि अनुशासन। जब मैं बिजनेस मैनेजमेंट की पढ़ाई कर रहा था, तब मेरे एक शिक्षक ने कहा था कि अगर पैसे चले जाते हैं, तो तुम अपनी मेहनत से उसे हासिल कर सकते हो लेकिन अगर वक्त हाथ से निकल गया तो लाख कोशिशों के बावजूद वह वापस नहीं मिल सकता। यह मेरे लिए एक बड़ी सीख थी। मैं कोशिश करता हूं कि एक-एक पल का इस्तेमाल करूं। इसमें मेरी पत्नी वंदना का भी सहयोग रहता है।
क्या आलोचना आसान विधा है?
आलोचना बहुत ही कठिन विधा है। आलोचना की तैयारी बहुत श्रमसाध्य काम है। आप अगर किसी कृति पर लिखते हैं तो आपको कृति संबंधी उपलब्ध सामग्रियों को पढऩा पड़ता है। आलोचना कर्म रस्सी पर चल रहे उस नट की तरह है, जिसको इस छोर से उस छोर तक संतुलन बनाकर रखना पड़ता है। वरना सावधानी हटी नहीं कि दुघर्टना घटी।
कविताओं, शायरी आदि से कितना लगाव है?
मैं कविता और शायरी पढ़ता अवश्य हूं लेकिन लिखता नहीं हूं। कविता लिखना बहुत मेहनत का काम है। इन दिनों जिस तरह से बुरी कविताओं ने अच्छी कविताओं को ढक-सा लिया है, उससे मन खिन्न हो जाता है।
युवा साहित्यकारों में आप किसे सबसे अधिक पसंद करते हैं?
कई युवा साहित्यकार बढिय़ा लिख रहे हैं। संजय कुंदन, जयश्री राय और गीताश्री बेहतर लिख रही हैं। हाल ही में मैंने संजय कुंदन का कविता संग्रह च्योजनाओं का शहर' पढ़ा। मुझे लगता है कि संजय कुंदन अपनी पीढ़ी के सबसे समर्थ कवि हैं। संजय कुंदन का गद्य भी उतना ही गठा होता है। जयश्री राय और गीताश्री की भाषा अद्भुत है। रत्नेश्वर सिंह की मीडिया पर आई किताब मीडिया लाइव ने भी प्रभावित किया है।
लेखकों के लिए सोशल साइट्स कितना मददगार है?
इन दिनों सोशल साइट्स लेखकों के लिए बहुत मददगार हैं। जरूरत इस बात की है कि इसका सकारात्मक उपयोग किया जाए। कुछ लेखक इसे साहित्य की राजनीति का अखाड़ा समझते हैं, जबकि इसका इस्तेमाल विमर्श के अड्डे के तौर पर होना चाहिए। आपको बताऊं कि ईएल जेम्स ने फिफ्टी शेड्स ट्रायोलॉजी को पहले सोशल साइट्स पर ही डाला था। बाद में पाठकों के दबाव पर उसे उपन्यास का रूप दिया। उसकी सफलता को पूरी दुनिया ने देखा। हिंदी के पाठकों की संख्या बढ़े, इसके लिए लेखकों को युवाओं की रुचि के अनुरूप भाषा लिखनी होगी। हम रीतिकालीन भाषा लिखकर यह अपेक्षा नहीं कर सकते हैं कि इक्कीसवीं सदी का पाठक उसे पसंद करेगा। यही बात विषय के साथ भी लागू होती है। युवाओं के अंतर्मन को छूने वाले विषय, उनके सपने-संघर्ष और उनके द्वंद्व को अपनी रचनाओं में जगह देना होगा!