बेवाक कलम बिंदास बोस : गीताश्री
गीताश्री की कहानियों में अलग-अलग परिवेश की सशक्त स्त्रियां हैं, जो स्वच्छंद जीवन जीती हैं। दरअसल, उन्होंने खुद सामंती समाज की पाबंदियां झेली हैं, तभी उनकी कहानियों में होता है सिर्फ यथार्थ। उनकी अब तक 10 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। इन दिनों वे एक उपन्यास पर काम कर रही
गीताश्री की कहानियों में अलग-अलग परिवेश की सशक्त स्त्रियां हैं, जो स्वच्छंद जीवन जीती हैं। दरअसल, उन्होंने खुद सामंती समाज की पाबंदियां झेली हैं, तभी उनकी कहानियों में होता है सिर्फ यथार्थ। उनकी अब तक 10 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। इन दिनों वे एक उपन्यास पर काम कर रही हैं।
आपने कहानियां लिखने की शुरुआत कब की?
बीज तो बचपन में ही पड़ गए थे। राजा-रानी और परियों की कहानियां कॉपी में लिखती रहती थी। समय के साथ वो तिलिस्म पीछे छूट गया। नई कहानी के प्रवर्तकों में से एक राजेंद्र यादव की पाठशाला में मैंने कहानी लिखना सीखा। वे मेरे कथा-गुरु रहे हैं। बेहद सख्त गुरु जिन्होंने शुरुआती दौर में एक-एक कहानी को कई बार लिखवाया। कहानी मुकम्मल हो जाने पर वे बड़ी कंजूसी से माक्र्स भी दिया करते थे।
क्या अपनी कहानियों में आप सिर्फ यथार्थ ही लिखती हैं?
कहानियां दो तरह से लिखी जाती हैं, एक जीवन के अनुभवों से, तो दूसरे अनुभव से निकले आइडिया से। आपके अपने अनुभव और आपकी विचारधारा-जो आपके लेखन का एजेंडा तय करती हैं, ये सब मिलकर कहानी की दुनिया सिरजते हैं। काल्पनिकता भी जरूरी है। मेरा विश्वास उस यथार्थ में है जो काल्पनिकता की गुंजाइश देकर खत्म हो जाए।
आपकी ज्यादातर कहानियों में स्त्री मुक्ति की बात क्यों होती है?
मैं स्त्री हूं। सामंती समाज से निकल कर आई हूं। मैंने घोर पाबंदी देखी और लड़की होने का दंश भी झेला है। अपनी बात कहने और प्रतिरोध जताने का जरिया मेरे लिए कहानी है, इसलिए स्त्री मुक्ति की धमक स्वाभाविक है। हालांकि हर कहानी वही बात नहीं कहती। मैंने दूसरे विषयों पर भी कहानियां लिखी हैं। शायद लोगों ने नोटिस नहीं किया।
इन दिनों ज्यादातर युवा लेखिकाएं स्त्री मुक्ति के नाम पर दैहिक स्वच्छंदता की बात करती हैं। आपकी राय...
यह भी एक किस्म की गलतफहमी है। यही गलतफहमियां स्त्री विमर्श का नुकसान कर रही हैं और स्त्रियों की एकता को खंड-खंड कर रही है। स्त्रियों के सार्थक लेखन को कुहरे से ढकने की साजिश को समझने की जरूरत है। जब ये भरम दूर हो जाएंगे, तभी स्त्री लेखन का भला होगा। दैहिक स्वच्छंदता की बात कौन कर रहा है? कहानियों में अगर स्त्री अपनी यौनाकांक्षाओं के बारे में बात करती है, तो वह देहमुक्ति की बात हो गई। हद है। सब सुनी-सुनाई बातें हैं। पहले कहानियों का पाठ हो, सही संदर्भों में समझा जाए फिर कोई आरोपण हो।
आपकी नजर में कौन से युवा लेखक और लेखिकाएं बढि़या लिख रहे हैं?
युवा कहानीकारों में प्रभात रंजन, सोनी सिंह, महाभूत चंदन राय, प्रेमा झा, सोनाली सिंह, शशिभूषण द्विवेदी, तब्बसुम निहां, पंखुड़ी सिन्हा, चंदन पांडेय, अनुसिंह चौधरी बहुत अच्छा लिख रहे हैं। अलग तेवर हैं इनकी कहानियों के। सोनी सिंह की कहानियां पढ़ने के लिए बहुत उदारता और साहस की जरूरत है। इनमें सबकी शैली अलग हैं।
पुरानी पीढ़ी की लेखिकाएं भी अपनी कहानियों में सशक्त स्त्री को पेश करती थीं। कहानियों में अब और तब की उनकी सशक्तता में कितना अंतर पाती हैं आप?
यह सशक्तता भी बड़ा भ्रामक शब्द है। स्त्री रचनाकारों ने पहले जो स्त्री पात्र गढ़े, वे सब समयानुसार मुखर थीं। अपने समय का प्रतिनिधित्व करती हुईं। आज जो कहानियों में आ रही हैं, वे पहले से ज्यादा मुखर होंगी, क्योंकि वक्त बदल गया है। इस बदलाव को समझना होगा तभी पहले और आज के स्त्री किरदारों का फर्क समझ में आएगा। वे स्त्री गुलामी के चरम दिन थे। पहली छटपटाहट चंगुल से निकलने की थी। आर्थिक आजादी के लिए लड़ाई लड़ी जा रही थी। उस समय समस्याएं अपार थीं जिन्हें केंद्र में रखकर स्त्री पात्र गढे जा रहे थे। उस दौर में भी मित्रो मरजानी जैसी किरदार गढ़े गए। उस वक्त फैसला लेना आसान नहीं था स्त्री के लिए। आज स्त्रियां लगभग आजाद हैं बहुत सी रूढि़यों से। अपने अधिकारो को लेकर ज्यादा मुखर हुई हैं। आपको समय का फर्क समझना होगा।
आप भारत की तसलीमा नसरीन कहलाना पसंद करेंगी?
तसलीमा एक आजाद लेखिका हैं। बेधड़क, बेबाक लिखने वाली, जिंदगी से लबालब भरी हुई स्त्री जिन्होंने लेखन के लिए जोखिम का रास्ता चुना और दरबदर हुईं। वे लेखन में स्त्री साहस का उच्चतम प्रतीक हैं। मेरी एक किताब 'सपनों की मंडी' का आमुख उन्होंने ही लिखा है। मैंने उनकी हर उपलब्ध किताब पढ़ी है। वे मुझे अत्यंत प्रिय हैं। उपन्यास हो या आत्मकथा, तसलीमा बेबाक लिखती हैं, धार्मिक कïट्टरता, लैंगिक असमानता पर गहरी चोट करती हैं और पाखंडी समाज के गोपनीय मंसूबे को पहचान कर उसका भंडाफोड़ करती हैं इसलिए कïट्टरपंथियों को वे नहीं सुहाती हैं। साहित्य में साहसी लेखिकाओं का जो हाल होता है वही उनका है। कहीं लेखिकाएं आत्मनिर्वासन झेल रही हैं, तो तसलीमा सशरीर भटक रही हैं। उनके लेखन से कïट्टरपंथी हों या कथित उदारवादी साहित्य समाज, सभी खौफ खाते हैं। हमारे धर्म, परिवेश और हालात अलग-अलग हैं। हम किसी दूसरे की तरह क्यों होना चाहेंगे भला। मैं अपनी तरह की ही होना चाहती हूं। किसी को सराहने का मतलब उसकी तरह होना नहीं होता।
अगली पीढ़ी आपको किस रूप में याद करे?
मेरी ऐसी कोई ख्वाहिश नहीं। मैं हमेशा से एक ऐसी विद्रोही स्त्री के रूप में जानी जाती रही हूं, जिसने सामाजिक-साहित्यिक रूढि़यों के खिलाफ आवाज उठाई और परास्त करने वाली पूरी फौज पर अकेली भारी पड़ी।
(स्मिता)