कबीराना अंदाज की कविताए
यह प्रतिवाद उन्हें संघर्ष के संकल्प की ओर ले जाता है, तो कहीं हताशा और निराशा की ओर, फिर भी उनकी आस्था डगमगाती नहीं है। यह जनपक्षरता ही उनकी कविता की भीतरी शक्ति है।
वीरेंद्र सारंग की कविता का मूल स्वर विद्रोह और विक्षोभ का है, बावजूद इसके वे गहन इंद्रिय बोध के कवि हैं। ‘चलो कवि से पूछते हैं’ की अधिकांश कविताएं आम आदमी विशेषकर गरीब, मजदूर, किसान और आदिवासियों का कड़ा प्रतिवाद करती हैं। यह प्रतिवाद उन्हें संघर्ष के संकल्प की ओर ले जाता है, तो कहीं हताशा और निराशा की ओर, फिर भी उनकी आस्था डगमगाती नहीं है। यह जनपक्षरता ही उनकी कविता की भीतरी शक्ति है।
सारंग की कविताओं में लोक जीवन के रंग और अपनी मिट्टी की सुगंध सर्वत्र विद्यमान है। गांव की प्राकृतिक छटा
और लोक परंपराओं में कवि का मन खूब रमता है। इधर औद्योगीकरण के कारण मनुष्य और प्रकृति के रिश्तों में जो अलगाव पैदा हुआ है उस पीड़ा की अभिव्यक्ति भी है। ‘साफ-साफ यही जनस्रोत बचा है/ पिएंगी भीजेंगी भौजी, पीहर से दौड़ी आएंगी। सावन के साथ अपने गीतों की गठरी लिए/तर-ब-तर/ भीज जाऊंगा मैं दुलार में/खूब नहाएगा भैया जब देखेगा/ घर को जरूरत है लायक पानी की।’ संकीर्णता और अमानवीयता के प्रतिरोध वाली इन कविताओं का कबीराना अंदाज हमें प्रभावित करता है।
डॉ. राकेश शुक्ल्