संस्कार में मिला लेखन
हिंदी में हर विधा पर कलम चलाते हैं हरीश नवल। साहित्य के कई बड़े सम्मान और चर्चित किताबें दर्ज हैं इनके खाते में। व्यंग्य के इस वरिष्ठ हस्ताक्षर से लालजी बाजपेयी की बातचीत के अंश...
लेखन की शुरुआत महज संयोग है या विरासत?
लेखन मुझे संस्कार में मिला है। मेरे दादा पंडित त्रिलोकीनाथ उर्दू के नामचीन शायर थे। पिता हरिकृष्ण नवल अंग्रेजी के लेखक व पत्रकार थे। मुझे बचपन में कहानियां बहुत प्रभावित करती थीं। दादा जी कोई विषय दे देते और मैं उस पर कहानी गढ़कर उन्हें सुना दिया करता था। नवीं में पढ़ने के दौरान मेरा लेख सर्वहितकारी पत्रिका में प्रकाशित हुआ। इसके बाद मेरा पहला व्यंग्य दिल्ली की नीलम पत्रिका में प्रकाशित हुआ। इसके लिए मुझे पुरस्कार भी मिला, जो मुझे आजीवन याद रहेगा। इसके बाद लेखन का सिलसिला बढ़ता गया और मेरा पहला
व्यंग्य संकलन भारतीय ज्ञानपीठ ने छापा। इसके लिए मुझे युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला।
अधिसंख्य साहित्यकार मानते हैं कि अब व्यंग्य फूहड़ता का पर्याय हैं। आप इससे सहमत हैं?
इस पर इतना ही कहना चाहूंगा कि व्यंग्य के नाम पर अधिकतर जो भी लिखा जा रहा है, वह व्यंग्य है ही नहीं। टिप्पणी करना, सिर्फ हंसाना, शब्दों की जगलरी या कटाक्ष करना व्यंग्य कभी नहीं हो सकता है। बहुत सी पत्र-पत्रिकाओं और लेखकों ने इस विधा को बहुत छिछला बना दिया है। सर्वाधिक नुकसान कवि सम्मेलन पहुंचा रहे हैं, जहां व्यंग्य के नाम पर दोअर्थी भाषा और लतीफेबाजी का जमकर प्रयोग किया जाता है।
व्यंग्य लेखकों की पौध तेजी से बढ़ रही है। इसे किस रूप में देखते हैं?
व्यंग्य हमेशा से लोकप्रिय है। यह सच है कि अच्छे व्यंग्य लेखकों की कमी भी नहीं है। आजादी के बाद से व्यंग्यकारों की पांच पीढ़ियां लगातार लिख रही हैं। श्रेष्ठ व्यंग्य लेखकों की तादाद भी बढ़ रही है। नवोदित व्यंग्य लेखकों पर पूरा भरोसा करने की जरूरत है कि वह और अच्छा लिखेंगे।
आप किन व्यंग्यकारों को पढ़ना पसंद करते हैं?
हरिशंकर परसाईं, शरद जोशी और रवींद्रनाथ त्यागी की पीढ़ी के बाद के व्यंग्यकारों-जिनमें श्रीलाल शुक्ल भी हैं-के अतिरिक्त ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जनमेजय, सुभाष चंदर, गिरीश पंकज, पंकज प्रसून, अतुल चतुर्वेदी आदि ऐसे और भी लोग हैं, जो अच्छा लिख रहे हैं। यह लेखक ऐसे हैं, जिन्हें पढ़ने में मजा आता है और यह नाम मैंने कोई वरीयताक्रम में नहीं बताए हैं। शायद कई नाम मुझसे छूट भी रहे हैं।
क्या सोशल मीडिया साहित्य का बेहतर मंच है?
सोशल मीडिया को साहित्य का मंच कहना ठीक नहीं होगा। हां, यह सच है कि यह साहित्य की चौपाल का रूप जरूर धारण कर रहा है। इसके फायदे यह हैं कि न प्रकाशन का झंझट और न ही इंतजार करने की जरूरत। जब दिल चाहे त्वरित प्रतिक्रिया दीजिए। जो लोग जुड़ रहे हैं, उन्हें अच्छा भी लग रहा है। हिंदी व्यंग्य विमर्श तो
सोशल मीडिया पर प्रिय विषय बन रहा है।
अच्छा लिखने के लिए प्रोत्साहन जरूरी है। अपने कुछ सम्मानों के बारे में बताइए?
इसे पाठकों का प्यार कहूंगा कि वे मुझे पढ़ते हैं और अच्छा लिखने के लिए प्रेरित करते हैं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुझे सौ से अधिक पुरस्कार मिल चुके हैं जिनमें ‘युवा ज्ञानपीठ’, ‘गोविंद बल्लभ पंत
सम्मान’, ‘व्यंग्यश्री’, ‘अलकनंदा’ और ‘माध्यम’ आदि शामिल हैं। इसके अतिरिक्त एक दर्जन से अधिक बार विदेश साहित्य यात्रा पर गया, जहां हिंदी पर काम कर रही संस्थाओं ने मुझे सम्मानित किया। फिर भी कहना चाहूंगा कि सबसे बड़ा सम्मान मेरे लिए यह है कि एक दर्जन शोधार्थियों ने मेरे साहित्य पर शोध कर एम.फिल व पीएचडी की उपाधियां अर्जित की हैं।
इन दिनों बेस्टसेलर का ट्रेंड जोरों पर है। इस पर क्या कहना चाहेंगे?
हिंदी में बेस्टसेलर का ट्रेंड है ही नहीं। हां, एक दौर था, जब गुलशन नंदा, दत्त भारती, वेद प्रकाश, कर्नल रंजीत जैसे लेखकों के लिए यह ट्रेंड था। मेरा मानना है कि इसे साहित्यिक दायरे में न रखा जाए तो ही बेहतर है। बिना ट्रेंड के तो धर्मवीर भारती की ‘गुनाहों का देवता’, दुष्यंत कुमार की ‘साये में धूप’ आज भी खूब छप रही है और बिक भी रही है। हरिवंशराय बच्चन, अज्ञेय हों या फिर कमलेश्वर, वे तो खूब पढ़े गए लेकिन बेस्टसेलर नहीं हुए। वजह है कि यह सब अंग्रेजी साहित्य में है।
कहते हैं कि जो काम आप करते हैं वह आपकी आदतों में झलकने लगता है। क्या आपके साथ कुछ ऐसा है?
जी हां, मेरे साथ तो कुछ ऐसा ही है। मेरे परिचितों, रिश्तेदारों से लेकर सब्जी वाला और यहां तक कि मेरे फैमिली डॉक्टर मेरी बातों, भाषाशैली और हंसी से जान जाते हैं कि यह व्यंग्यकार हैं और यह जो कह रहे हैं, वास्तव में उसके कहने का अभिप्राय दूसरा है।
हिंदी साहित्य से नई पीढ़ी दूर हो रही है। इस बात से कितना इत्तेफाक रखते हैं?
हिंदी ही नहीं, नई पीढ़ी समग्र साहित्य से दूर हो रही है। सिनेमा, फेसबुक और टीवी साहित्य कम परोस रहे हैं। इनमें रिमिक्स, चुटकुला कार्यक्रम और शो ज्यादा दिखाए जा रहे हैं। टीवी के कवि सम्मेलन साहित्य का बहुत नुकसान कर रहे हैं। राष्ट्रीय स्तर की बात करूं तो उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और उत्तराखंड साहित्य को सहेजने में काफी आगे हैं।
इन दिनों क्या लिख रहे हैं?
पत्र-पत्रिकाओं के लिए लेखन और कविताएं गढ़ना तो नियमित दिनचर्या में शामिल है। इसके अतिरिक्त दो उपन्यासों पर काम कर रहा हूं। इसमें एक व्यंग्य उपन्यास है। टीवी लेखन पर भी एक पुस्तक पूर्णता की ओर है।
अपनी कुछ किताबों के नाम बताइए?
मेरी प्रमुख किताबों में ‘बागपत के खरबूजे’, ‘पीली छत पर काला निशान’, ‘माफिया जिंदाबाद’, ‘दिल्ली चढ़ी पहाड़’, ‘दीनानाथ के हाथ’, ‘वाया पेरिस आया गांधीवाद’, ‘इक्यावन व्यंग्य रचनाएं’ आदि हैं।
आपके हंसने-हंसाने का फॉर्मूला क्या है?
स्वस्थ आशावादी दृष्टिकोण रखना, हमेशा सकारात्मक सोचना, दुनिया में रहते हुए भी अलग रहने का प्रयास करना, परिवार के साथ अधिक से अधिक वक्त बिताना, शाकाहारी होना और बड़ी से बड़ी समस्या होने पर भी ठिठोली के अंदाज में जीना। शायद यही वह वजहें हैं कि मैं कैंसर जैसी बीमारी से जीत हासिल कर फिर से ऊर्जावान हूं।
लालजी बाजपेयी