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अभाव का महत्व

यह बात सात वर्ष पुरानी है, जब मैं इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण कर स्नातक में दाखिला लेने हेतु प्रयत्न कर रहा था। मैं कॉलेज जाने और वहां का माहौल देखने के लिए बेहद उत्सुक था। मेरे मन में भी कई प्रकार के सपने और आशाएं जन्म ले रही थीं। मैंने वहां अपनी पढ़ाई क

By Edited By: Published: Mon, 09 Jun 2014 11:52 AM (IST)Updated: Mon, 09 Jun 2014 11:52 AM (IST)
अभाव का महत्व

यह बात सात वर्ष पुरानी है, जब मैं इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण कर स्नातक में दाखिला लेने हेतु प्रयत्न कर रहा था। मैं कॉलेज जाने और वहां का माहौल देखने के लिए बेहद उत्सुक था। मेरे मन में भी कई प्रकार के सपने और आशाएं जन्म ले रही थीं। मैंने वहां अपनी पढ़ाई के साथ-साथ एक व्यक्तिगत संस्था में नौकरी करना आरंभ किया।

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मैंने बचपन से ही कई प्रकार के अभावों के बीच जीवन व्यतीत किया था, इसलिए जब भी मुझे तनख्वाह मिलती, मैं उसे बेहद समझदारी से आवश्यक मदों पर ही खर्च करता था। इस तरह परिवार की स्थिति तो ठीक चल रही थी, पर इस बीच मेरी पढ़ाई का बहुत नुकसान हुआ। मैं समय के अभाव के कारण अपनी पढ़ाई को बिल्कुल भी वक्त नहीं दे पा रहा था, जिसका बुरा परिणाम मेरे सामने आया। मैं स्नातक अंतिम वर्ष की परीक्षा में फेल हो गया था। रिजल्ट देखकर मेरे पैरों तले से जमीन ही खिसक गई।

घर के सभी सदस्य मुझसे बहुत निराश और रुष्ट थे। मेरा रिजल्ट सचमुच बहुत बुरा आया था। घर के आसपास रहने वाले सभी लोगों के लिए मेरा फेल होना आपसी मनोरंजन जैसा हो गया था। उनके द्वारा कही गई बातें और उनके व्यंग्य-बाण मेरे निराश हृदय को और भी कमजोर बना देते थे।

मैं सरकारी नौकरी पाना चाहता था, लेकिन समय और धन के अभाव के कारण मैं उसकी परीक्षा की तैयारी भी नहीं कर पा रहा था। अत: मैंने नौकरी छोड़कर पहले अपनी पढ़ाई को पूरा करने का निश्चय किया। मैं अपनी पारिवारिक स्थिति को भली-भांति जानता था। घर में कभी-कभी तो अत्यधिक जरूरतमंद चीजें भी बहुत मुश्किल से मिल पाती थीं, इसलिए मैंने घर पर पढ़ने के साथ-साथ कुछ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया। इससे मैं अपना छोटा-मोटा खर्च खुद ही निकाल लिया करता था। पर यह काफी नहीं था।

उन्हीं दिनों हमारी पारिवारिक संपत्ति को लेकर कुछ संबंधियों से विवाद चल रहा था। यह विवाद इतना अधिक बढ़ चुका था कि हमें अपनी संपत्ति को बचाने के लिए बहुत से रुपयों की आवश्यकता थी। मां बहुत दु:खी और निराश थीं। उस संपत्ति से हमारे जीवन की कई अनमोल यादें जुड़ी थीं। मां के लिए वह किसी अनमोल धरोहर से कम नहीं थी। घर की आर्थिक स्थिति को देखते हुए इतने रुपयों का इंतजाम करना असंभव था।

मैं अपनी अक्षमता के कारण निराशाओं से घिर चुका था। इसके बावजूद कुछ दिनों बाद, मैंने लिपिक पद हेतु आवेदन-पत्र भरा और उसकी परीक्षा की तैयारी में जुट गया। आरंभ में सरकारी नौकरी पाना लोहे के चने चबाने से कम न लगता था, लेकिन मैं दृढ़ता से अध्ययनरत रहा। डेढ़ वर्ष बाद मुझे मेरे परिश्रम का फल मिला। मैंने लिपिक वर्ग की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। मैं और मेरा परिवार बहुत ही खुश थे। मैं खुद को सातवें आसमान पर महसूस कर रहा था। मेरी नियुक्ति रक्षा मंत्रालय दिल्ली की 'इंजीनियर्स इन चीफ ब्रांच' में हुई। आज मैं वहां कार्यरत हूं, और अपनी उपलब्धियों से संतुष्ट भी। नौकरी मिलने के कुछ महीनों के बाद हमारी पारिवारिक स्थिति ठीक होने लगी और पुरानी संपत्ति का विवाद भी खत्म हो गया।

अब सोचता हूं तो लगता है कि जो कुछ होता है, अच्छे के लिए ही होता है। अभावों के कारण परेशानियां तो बहुत आईं, पर उनसे बहुत कुछ सीखने को भी मिला। आज सफल होने के बाद भी मैं आवश्यकता से अधिक धन कभी व्यय नहीं करता, क्योंकि धन के अभाव के कारण ही मैं इसका महत्व समझ पाया। मैंने अपने जीवन से यही सीखा कि हमें जीवन में आने वाली कठिनाइयों से घबराना नहीं चाहिए, बल्कि उनका डटकर सामना करना चाहिए और अपनी शक्तियों को पहचानना चाहिए।

(रवि कुमार)


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