पापा से कहना...
र।त गहराने लगी थी। बूढ़ा सरदार बिस्तर पर लेटा नींद का इंतजार कर रहा था। अपने ही मकान से भायं-भांय की आती हुई आवाज सुनाई दे रही थी उसे। अकेला जो था वह उस मकान में। तभी मोबाइल की घंटी बजी।
र।त गहराने लगी थी। बूढ़ा सरदार बिस्तर पर लेटा नींद का इंतजार कर रहा था। अपने ही मकान से भायं-भांय की आती हुई आवाज सुनाई दे रही थी उसे। अकेला जो था वह उस मकान में। तभी मोबाइल की घंटी बजी। फोन पर उसकी पुत्रवधू थी जो अपने मायके से बोल रही थी, ‘‘खाना खा लिया पापा?’’ कम से कम बहू ने तो याद किया उसे। निश्चय ही औरतें पुरुषों की अपेक्षा अधिक दयावान होती हैं। ऐसा सोचते हुए बूढ़े ने उत्तर दिया, ‘‘हां बेटी, खा लिया। खैर, यह बताओ कि मन्नी (मनप्रीत) का मन लगा कि नहीं? उसे मेरी याद आती है कि नहीं?’’
मन्नी बूढ़े का पोता था। अपने पति के विदेश चले जाने के तुरंत बाद, बूढ़े की पुत्रवधू उसी दिन बच्चे को साथ लेकर अपने मायके चली गई थी। बेटा भी पिता का कहना न मानते हुए विदेश में धन कमाने गया था। बूढ़ा भरी आंखों से सबको विदा होते देखता रहा था।
‘‘हां पापा, मन्नी तो बाबा-बाबा कहके आपको याद करता रहता है। आज डरबन से आपके बेटे का फोन आया था...। बूढ़े ने बीच में ही बात काटते हुए उत्सुकता के साथ पूछा था- ‘‘क्या कह रहा था वह? ठीक तो है वह? एक बार भी फोन नहीं किया उसने मुझे वहां जाकर?’’ ‘‘वे कह रह थे कि पापा से कहना अभी वे बहुत बिजी हैं। काम अभी नया-नया है। फुर्सत मिलते ही फोन करेंगे वे आपको।’’ फोन बूढ़े के हाथ से छूटकर बिस्तर पर गिर गया था। उसने उसे दोबारा उठाने की जरूरत नहीं समझी। एक ही बात अब भी उसके कानों में गूंज रही थी-पापा से कहना!