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डाक का चक्कर

हमें लगने लगा कि हमारी अनेक रचनाओं के स्वीकृति- पत्र, पत्र-पत्रिकाओं में छपी हमारी रचनाओं वली लेखकीय प्रतियां, पारिश्रमिक के चैक, हमारी छपी हुई रचनाओं पर प्रशंसकों के ढेरों पत्र वगैरह उसी अनबंटी डाक में हो सकते हैं।

By Babita KashyapEdited By: Published: Tue, 20 Dec 2016 04:49 PM (IST)Updated: Tue, 20 Dec 2016 04:53 PM (IST)
डाक का चक्कर

डाकिए द्वारा अपने घर से चार महीने की अनबंटी डाक रखने का समाचार कुछ समय पहले हमने

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पढ़ा था। यह समाचार पढ़ते ही हमें अपने क्षेत्र के डाकिए का ध्यान आ गया, जिसकी बाट हम दिन-रात

जोहा करते हैं और जो कभी-कभार ही प्रकट हुआ करता है। हमें लगने लगा कि हो-न-हो जिस-जिस दिन वह

डाकिया नजर नहीं आता, उस-उस दिन की अनबंटी डाक वह अपने घर पर ही रख लेता होगा। हमें वे-वे दिन याद

आने लगे, जब-जब उस डाकबाबू के दर्शन हमें हो नहीं पाए थे।

हमें लगने लगा कि हमारी अनेक रचनाओं के स्वीकृति- पत्र, पत्र-पत्रिकाओं में छपी हमारी रचनाओं वली लेखकीय

प्रतियां, पारिश्रमिक के चैक, हमारी छपी हुई रचनाओं पर प्रशंसकों के ढेरों पत्र वगैरह उसी अनबंटी डाक में हो सकते हैं। यह बात भी हमारे दिमाग में आई कि हो सकता है संपादक लोग हमारी रचनाओं से इतने अधिक प्रभावित हो गए हों कि पत्र लिख-लिखकर हमसे रचनाएं भेजने का आग्रह करते हों, पर ऐसे पत्र हम तक पहुंच ही न पाएं हों।

तभी यह ख्याल भी हमारे मन में कौंधा कि हो सकता है कि पत्र-पत्रिकाओं में 'छपी' हमारी रचनाओं के दूसरी

भाषाओं में अनुवाद करने के लिए विभिन्न अनुवादकों ने हमसे अनुमति मांगी हो और ऐसी चि_ियां भी हम तक

पहुंच न पाई हों और इस तरह हमारी कालजयी रचनाओं का अनुवाद होने से रह गया हो और देश-विदेश के करोड़ों

लोग हमारी बहुमूल्य रचनाओं का रसास्वादन करने से वंचित रह गए हों।

मगर हमारी 'काल्पनिक' खुशियों के समुंदर कुछ ही दिन बाद एकाएक सूख गए जब एक दिन डाकिए ने हमें

चि_ियों का एक बड़ा-सा बंडल थमाया। हम तो एक साथ आई इतनी सारी चि_ियां देखकर बौरा ही गए, क्योंकि हमें तो अब तक एक या दो चि_ियां ही मिला करती थीं, वह भी एक या दो दिन छोड़कर। चि_ियां हाथ

में आते ही हमारा दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। डाकिए ने हमारे चेहरे पर न जाने क्या पढ़ लिया कि हमारे कुछ

पूछने से पहले ही कहने लगा, 'जी, मैं बीस दिन की छुट्टी पे था, इसलिए डाक इक_ी हो गई थीं।Ó हमने 'अच्छाÓ

की मुद्रा में सिर हिलाया और झटपट दरवाज बंद करके अपने कमरे में आकर चि_ियां देखने लगे।

जोर-जोर से धड़क रहा हमारा दिल हमें बार-बार यही कह रहा था कि इतनी सारी चि_ियों से अनेक

खुशखबरियां हमें जरूर मिलेंगी। हम एक-एक करके चि_ियां खोलने लगे। अधिकतर तो हमारी रचनाएं वापस

आई हुई थीं, कुछ उन जवाबी पोस्टकार्डों के जवाब थे जो हमने अपनी रचनाओं के बारे में कोई उत्तर न मिलने पर

संपादकों को लिखे थे। इन जवाबी पोस्टकार्डों में भी कोई खुशखबरी छिपी हुई नहीं थी। इसके अलावा

कुछ पत्रिकाओं के अंक थे, जिनका हमने चंदा भेजा हुआ था। हमने जल्दी-जल्दी उन सब

पत्रिकाओं के पन्ने पलट डाले कि शायद हमारी कोई रचना उसमें नजर आए, पर हमारे हाथ निराशा के

अलावा और कुछ न लगा।

अपनी आशाओं के महल हमें ढहते-से लगे, पर हम भी ठहरे ढीठ प्राणी। हमने भी उठाए अपने हथियार यानी कि कागज-पेनलिफाफे और डाक टिकटें और दे दनादन वापस लौटी सभी रचनाओं को उसी दिन दूसरी पत्र-पत्रिकाओं में भेज दिया।

अगले दिन से हम डाकिए की बाट फिर जोहने लगे थे- दिल में यही उम्मीद लिए कि हमारे लिए खुशखबरी के पुलिंदे आएंगे।

हरीश कुमार अमित

304, एम.एस.4, केंद्रीय विहार, सेक्टर 56,

गुडग़ांव-122011 (हरियाणा)


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