पुस्तक चर्चा: विशिष्ट ग्राम्योन्मुखी रचनादृष्टि
गांव में तैनात शिक्षकों का आचरण किस प्रकार शिक्षा व्यवस्था से खिलवाड़ करता है, किस प्रकार से आज भी सशक्त प्रावधानों के बावजूद कई गांव बिजली के लिए तरसते हैं, यह संपूर्ण वस्तुस्थिति उक्त कथा में वर्णित है।
'कुच्ची का कानून' वरिष्ठ कथाकार शिवमूर्ति की चार लंबी कथाओं का संग्रह है। इनमें से एक कथा 'जुल्मी' उनके
लेखन के प्रारंभिक दौर की ऐसी बानगी है, जिसमें कथाकार की परिपक्व तथा मंजी हुई ग्राम्योन्मुखी रचनादृष्टि दिखलाई पड़ती है, जो उनकी संपूर्ण रचनाधर्मिता में विस्तार लेती हुई उन्हें ग्राम्य जीवन का कुशल चितेरा सिद्ध करती है। एक अन्य कथा 'ख्वाजा ओ मेरे पीर' मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रेम की पीर को उजागर करने के साथ-साथ ग्राम्य समाज की वंचनाओं, विद्रूपों का खाका खींचती है। गांव में तैनात शिक्षकों का आचरण किस प्रकार शिक्षा व्यवस्था से खिलवाड़ करता है, किस प्रकार से आज भी सशक्त प्रावधानों के बावजूद कई गांव बिजली के लिए तरसते हैं, यह संपूर्ण वस्तुस्थिति उक्त कथा में वर्णित है।
'हरिजन सीट' की प्रत्याशिता तथा चुनावी मंजर का यथार्थ रचती कथा 'बनाना रिपब्लिक' कहानी दबंगों की दुरभिसंधियों को मुखर करती है। शीर्षक कथा 'कुच्ची का कानून' स्त्री के 'कोख के अधिकार' को लेकर चुनौतीपूर्ण विमर्श की सफलतम प्रस्तुति है। यह कथा यथास्थिति के प्रतिरोध स्वरूप सामाजिक संरचना की बुनियाद को ढहाने/ दरकने की वैकल्पिक संभावनाओं से युक्त है। पूर्व में भी प्रेमचंद तथा भिखारी ठाकुर जैसे रचनाकारों ने
अपनी तरह से, अपनी रचनाधर्मिता में इस मुद्दे को उठाया है, इसी की अगली कड़ी में शिवमूर्ति की यह महत्वाकांक्षी कथा देखी जा सकती है।
संपूर्ण कथा संग्रह में ग्राम समाज, विशेषकर दलित वर्ग की दुर्दशा, जड़ता, दुखदैन्य, आशाओं उमंगों के राग-रंगों के
साथ दुर्निवार संघर्र्षों की विभीषिकाओं का जीवंत चित्र पाठकों की संवेदनाओं को झकझोरता भर नहीं है, वरन एक आक्रोश या मन्यु की सृष्टि भी करता है।
पुस्तक: कुच्ची का कानून
कथाकार: शिवमूर्ति
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य: 350 रु.
दया दीक्षित