कोई अदृश्य शक्ति है जो करती है सबकी मदद
मैत्रेयी के लिए पुरस्कार कोई मायने नहीं रखता है, तभी तो गुरु समान राजेंद्र यादव और युवा लेखिकाओं की रचनाओं के बारे में भी वह अपनी बेबाक राय रखती हैं।
हिंदी अकादमी, दिल्ली की उपाध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा गांवों-देहातों की खाक छानकर सामने लाती रही हैं जुझारू स्त्रियों की कहानियां। कालजयी कृतियों की रचना के लिए बीहड़ों में रहने से भी उन्हें गुरेज नहीं है। मैत्रेयी के लिए पुरस्कार कोई मायने नहीं रखता है, तभी तो गुरु समान राजेंद्र यादव और युवा लेखिकाओं की रचनाओं के बारे में भी वह अपनी बेबाक राय रखती हैं।
आप हिंदी अकादमी, दिल्ली की उपाध्यक्ष हैं, कैसा महसूस करती हैं?
-मैंने कभी सोचा नहीं था कि हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष बनूंगी। एक-दो बार प्रस्ताव जरूर मेरे पास आए। जब पहली बार अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बने तो महिला आयोग के लिए मेरे पास प्रस्ताव आया था। जब वह दोबारा जीत कर सत्ता में आए तो किसी ने मुझे बताया कि अभी भी महिला आयोग के लिए मेरा नाम लिया जा रहा है। मैंने महिला आयोग में शामिल होने के प्रति अनिच्छा जाहिर कर दी। फिर मेरे पास हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष बनने के लिए प्रस्ताव आया। इस तरह मैंने यह पद स्वीकार कर लिया।
अकादमी के लिए अब तक आपकी क्या उपलब्धियां रही हैं?
-यहां आकर मुझे काफी बदलाव करने पड़े। मैं चाहती थी कि हिंदी अकादमी की छवि लोगों को प्रभावित करे और यह संस्था साहित्यकारों के काम आए। सबसे पहले मैंने यहां की त्रैमासिक पत्रिका को मासिक पत्रिका में तब्दील किया। लोकप्रिय बनाने के लिए इसमें कई नए कॉलम शुरू किए। मैंने पत्रिका के एक आलेख के लिए हजार रुपये से बढ़ाकर लेखकों को पांच हजार रुपये दिलाना शुरू किया। इस संस्थान द्वारा दिए जाने वाले पुरस्कारों की राशि भी बढ़ाई गई। कोई भी पुरस्कार अब एक लाख रुपये से कम नहीं है। साहित्यकारों का चुनाव करने के लिए एक निष्पक्ष ज्यूरी भी बनाई गई।
साहित्य और राजनीति एक-दूसरे से घुल-मिल क्यों जाते हैं?
-हर क्षेत्र में राजनीति चलती है और लोग इसके शिकार बन जाते हैं। लोगों को इससे बचकर रहना चाहिए। मैं यह कभी नहीं कहती कि मैं कट्टर वामपंथी हूं या कट्टर दक्षिणपंथी। मेरा झुकाव मानवता की तरफ है। साहित्य भी राजनीतिक पार्टियों की तरह होते हैं। इसमें भी अपने हित साधने के लिए खेमे बनाए जाते हैं और उसमें प्रवेश किया जाता है।
उपन्यास की नायिकाओं में अब कितना बदलाव आ चुका है?
-बदलाव तो कुछ भी नहीं हुआ, जो मैं दिखा रही थी वे जमीनी नायिकाएं थीं। वे किसान पत्नियां थीं, किसान बेटियां थीं। मैंने परंपराएं तोड़ने नहीं बदलने की बात रखी। सांस्कृतिक बदलाव के लिए मैंने ‘चाक’ लिखा। त्योहार हो या गांव की राजनीति या फिर गांव की शिक्षा को वहां की स्त्रियां किस तरह देखती हैं, इसे मैंने आधार बनाया। गांव की प्राथमिक शिक्षा की हालत बहुत खराब है। क्या किसी ने उस पर लिखा। लेखिकाओं द्वारा खाली शाब्दिक क्रांति करने से कुछ नहीं होने वाला।
क्या युवा लेखिकाएं सिर्फ कूड़ा ही लिख रही हैं?
-बढ़िया भी लिख रही होंगी। हो सकता है कि बढ़िया साहित्य मेरी नजरों से न गुजरा हो, पर ज्यादातर उपन्यास और कहानियां तो शाब्दिक क्रांति करती हुई ही प्रतीत हो रही हैं। युवा लेखिकाएं मुझसे पूछती हैं कि आपके चाक की सारंग क्या आजाद ख्याल नहीं है, लेकिन उसके मकसद को भी तो समझना चाहिए। सारंग ने गांव की शिक्षा के लिए ऐसा किया। महादेवी वर्मा ने भी लिखा है कि युद्घ भूमि में यदि कोई मर रहा है तो उसे ज्ञान की नहीं, स्त्री स्पर्श की जरूरत पड़ती है।
क्या अपने समान कोई लेखिका पाती हैं?
-जिस दिन कोई बीहड़ों में घूम-घूमकर लिखने लगेगी, वह जरूर मुझसे भी बड़ी लेखिका होगी। आज की लेखिकाओं के पास साधन और सुविधाएं हैं, वे चाहें तो ऐसा कर सकती हैं। लेखन के लिए भटकन जरूरी है। वह सफर था कि मुकाम था, किताब में आपने राजेंद्र यादव के बारे में बेबाकी से लिखा है। मुझे और राजेंद्र जी को लेकर लोगों की हमेशा उत्सुकता रहती थी। राजेंद्र जी का व्यक्तित्व बहुत भोला-भाला तो था नहीं। जैसे ही मैं हंस पत्रिका में छपने लगी, मेरे पीछे विवाद लग गए। मेरे सामने मेरी तारीफ कभी राजेंद्र जी ने नहीं की। वह कहा करते थे कि तुम लेखन को ड्रॉइंग रूम और बेडरूम से निकालकर खेत-खलिहानों तक ले गई। उन्होंने एक पत्र में लिखा कि मैत्रेयी एक विद्यार्थी की तरह मेरे पास आई। फिर भी विवाद चलते रहे।
पहली बार लोगों ने आपको और उन्हें लेकर बातें करनी शुरू की, तो आपकी क्या प्रतिक्रिया थी?
-मैं लोगों की बातों पर ताच्जुब किया करती थी। मेरा और राजेंद्र जी का संबंध एक लेखिका और संपादक का रहा। उससे भी ज्यादा एक मास्टर और एक शिष्य का रहा। बाद में धीरे-धीरे सखा-सहेली का हो गया। वह बातें बहुत किया करते थे। रोज फोन किया करते थे, जब विवाद होते तो मैं दुखी होती, लेकिन वह बिल्कुल बेपरवाह। मैं सोचा करती कि ये तो पुरुष हैं, बेपरवाह तो होंगे ही। मैं क्या करूं। मेरे साथ तो परिवार और पति भी हैं।
पति की क्या प्रतिक्रिया होती थी?
-पति ऐसे नहीं हैं कि ऐसी बातों से वे प्रभावित न हों। दुनिया की बातें सुनते तो उन्हें भी गुस्सा आता था। मैं दो चीजें झेल रही थी। एक घर के अंदर संघर्ष और दूसरा घर के बाहर साहित्य जगत में। मेरे उपन्यास उस समय चर्चा में आ रहे थे। साहित्य जगत में जो उभरता है, उनके लिए थोड़ी दिक्कत होती ही है।
पहले आप सिर्फ डॉक्टर की पत्नी कहलाती थीं। फिर बाद में बड़ी लेखिका बन गईं। पहली बार जब यह संबोधन सुना तो कैसा लगा?
-सोचा नहीं था कि जो मैं लिख रही हूं वह पहचान में आएगा। जब मैं लिखती थी तो मेरी छोटी बेटी कहती कि मम्मी एक दिन तुम्हारा नाम अखबार में आएगा। मैं सोचती कि मुझे खुश करने के लिए वह ये बातें कह रही है, लेकिन उसकी बातें सही निकलीं। डॉक्टर की पत्नी होने के नाते मेरा इंट्रोडक्शन होता था कि मीट माई वाइफ। लेखन पहचान में आने के बाद जीवन पलट गया। शादी के पहले मैं हमेशा को-एजुकेशन में पढ़ी। मैंने चुनाव भी लड़े थे। शादी के बाद जब लिखना शुरू किया तो फिर कायापलट हो गया। इसके बाद इंट्रोडक्शन कुछ इस तरह हुआ। ये डॉक्टर साहब मिस्टर मैत्रेयी। कुछ दिनों बाद उन्होंने कहा कि अब मैं तुम्हारे साथ कहीं नहीं जाऊंगा।
लेखिका बन रही थीं तब पति का कितना सपोर्ट रहा?
-बिल्कुल नहीं। जब वह मेरा इंटरव्यू पढ़ते हैं तो नाराज होते हैं, लेकिन मैं झूठ क्यों बोलूं?
जीवन से कोई शिकायत है?
-नहीं कुछ भी नहीं। लेखन ने मुझे सब कुछ दे दिया। उपाध्यक्ष का कार्यकाल खत्म होने के बाद कोई बड़ा उपन्यास लिखूंगी।
लेखन और अध्ययन के अलावा रुचि के कौनकौन से काम हैं?
-मैं रेडियो पर पुराने जमाने के गीत सुनती हूं। आजकल के गानों की लिरिक्स समझ में नहीं आते है। मैं टीवी सीरियल नहीं देखती हूं । कुकिंग करती हूं
लेखन का जीन आपकी बेटियों में आया है?
-आया तो है, लेकिन वे तीनों डॉक्टर हैं। छोटी बेटी फेसबुक पर लिखती है। लोग कहते हैं कि वह मेरे जैसा लिखती है।
पूजा-पाठ करती हैं?
-पूजा-पाठ नहीं करती हूं। मैं मानती हूं कि कोई अदृश्य शक्ति है, जो सबकी मदद करती है। जब दुख पड़ता है, तो एक तो मां का नाम निकलता है, दूसरा ईश्वर का।
युवा लेखिकाओं से आपकी क्या अपेक्षा है?
-कुछ नहीं। उन्हें मेरी बात बुरी लगती है, कारण मैं कहती हूं कि गहरे जाओ। अपने दायरे को विस्तृत करो तो फिर उन लोगों को बुरा लगता है। मेरे एक लेख से अभी तक कुछ युवा लेखिकाएं नाराज हैं। वे लोग सांस्कृतिक या धार्मिक स्तर पर या राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में चीजों को क्यों नहीं देखती हैं। लेखक का समाज के प्रति कुछ दायित्व होता है, जो जहां बैठा है, वहीं लिख रहा है। हाल ही में नीलिमा चौहान की किताब पतनशील पत्नियों के नोट्स की बड़ी चर्चा सुनी। मैंने जब पढ़ने के लिए उसे लिया तो मुझे उसमें रचनात्मकता की बहुत कमी दिखी। लेखक की प्रवृत्ति यायावरी होनी चाहिए। अल्मा कबूतरी लिखने के लिए मुझे बीहड़ में जाना और रहना भी पड़ा था, जबकि मैं दिल्लीमें रह रही थी। लेखक को खतरे भी उठाने पड़ते हैं।
-स्मिता
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