कमी दूर करके जीवन में सफलताएं हासिल कीं....
यह घटना उस समय की है, जब मैंने नए स्कूल में कक्षा आठ में प्रवेश लिया था और उस समय क्लास मॉनीटर द्वारा कहे गए व्यंग्य कथन से मेरा जागरण हुआ था। इस जागरण के उपरांत मैंने न केवल प्रथम श्रेणियों में उत्तीर्ण की, अपितु भारतीय रेल में प्रथम श्रेणी
यह घटना उस समय की है, जब मैंने नए स्कूल में कक्षा आठ में प्रवेश लिया था और उस समय क्लास मॉनीटर द्वारा कहे गए व्यंग्य कथन से मेरा जागरण हुआ था। इस जागरण के उपरांत मैंने न केवल प्रथम श्रेणियों में उत्तीर्ण की, अपितु भारतीय रेल में प्रथम श्रेणी चिकित्सा अधिकारी के रूप में सेवाएं दीं।
बात मेरे बचपन की है, जब हमारे परिवार का बुरा वक्त चल रहा था। जमींदार परिवार से होने के उपरांत भी मेरे पिता नगर में आकर व्यापारी के यहां मुनीम की साधारण नौकरी करके परिवार चला रहे थे। आठ भाई-बहनों में तीसरा मैं पढ़ाई-लिखाई में साधारण ही था। आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण बार-बार कई स्कूल बदल कर तथा पांचवीं कक्षा भी उत्तीर्ण किए बिना ही मैं घर पर बैठ गया।
लगभग तीन वर्ष उपरांत मेरे बड़े भाई ने मुझे घर पर ही पढऩे का परामर्श दिया और वे स्वयं मुझे पढ़ाने लगे। इसके बाद मुझे उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की कक्षा आठ की परीक्षा में व्यक्तिगत परीक्षार्थी के रू प में बिठाया गया। मैं अनुत्तीर्ण हो गया। भाईसाहब ने हार नहीं मानी। उन्होंने मुझे सिटी जूनियर हाईस्कूल में कक्षा आठ में एडमिशन दिला दिया। मेरा दाखिला इस शर्त पर हुआ था कि यदि त्रैमासिक परीक्षा में अच्छे अंक नहीं आए तो स्कूल से निकाल दिया जाएगा।
मैं स्कूल जाने लगा। कक्षा में उसी स्कूल के टॉपर रामकुमार मॉनीटर थे। उन्हीं के कारण मेरा जागरण हुआ। जब मैंने उनसे टाइमटेबल मांगा, तो वह मुझे हिकारत से देखकर बोले, 'टाइमटेबल अंग्रेजी में है, यह तुम्हारी समझ में नहीं आएगा। उनका यह कथन मेरे वास्तविक जागरण एवं जीवन की राह के मोड़ का विशिष्ट बिंदु बना। मैंने उनकी बात से उनसे दुश्मनी नहीं मानी, बल्कि इससे सीख ली।
अपनी इस कमी को दूर करने के लिए जी-जान से जुट गया। त्रैमासिक परीक्षा में मैं अंग्रेजी में सर्वाधिक अंक सहित कक्षा में सर्वप्रथम रहा। मुझे कक्षा मॉनीटर बन दिया गया। इसके बाद मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। हाईस्कूल व इंटर बोर्ड की परीक्षाएं च्च्च अंकों से उत्तीर्ण करने के पश्चात मेरा चयन एमबीबीएस में हुआ। इतना ही नहीं, इसके बाद मैंने शल्यचिकित्सा में स्नातकोत्तर (एमएस) किया। फलत: भारतीय रेल के चिकित्सा विभाग में अधिकारी के रूप में नियुक्त हो गया।
स्कूल छोडऩे के बाद रामकुमार कभी नहीं मिले, परंतु खास बात यह थी कि कमेंट करने के बाद उनकी बात मुझे चुभी नहीं, बल्कि उसने मुझे प्रेरित किया। हम दोनों उसके बाद च्च्छे दोस्त बन गए थे, जो स्कूल छोडऩे तक बने रहे। रामकुमार ने मुझे इतना ही प्रेरित नहीं किया, उनका और भी योगदान था। दरअसल, रामकुमार हिंदी क विताएं लिखते थे। उन्हें देखकर मेरेअंदर भी कविता लिखने की रुचि जाग्रत हुई। हिंदी लेखन का कार्य स्कूल-कॉलेज से लेकर मेडिकल कॉलेज और नौकरी तक चलता रहा।
सेवानिवृत्ति के बाद मैंने स्वच्च्छा से हिंदी साहित्य, कविता और गद्य लेखन से जुडऩे का निश्चय किया। मैंने जो कविताएं लिखी थीं, उन्हें पढ़कर मेरी बेटी ने सुझाव दिया कि इन्हें प्रकाशित करवाना चाहिए। इस प्रकार मेरी प्रथम पुस्तक 'काव्यदूत'प्रकाशित हुई। अब तक डॉ. श्याम गुप्त के साहित्यिक नाम से मेरी नौ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। पत्रिकाओं एवं उनके इंटरनेट संस्करणों पर आलेख, समीक्षा, कहानी, कविताएं प्रकाशित होती रहती हैं, साथ ही अपने ब्लॉग और दैनिक जागरण के जागरण जंक्शन पर भी मैं रचनारत हूं।
मैं सोचता हूं कि आज मैं अपने जीवन से जितना संतुष्ट हूं, उसके पीछे मेरे उन मित्र का योगदान काफी है, जिन्होंने मुझे अंग्रेजी न आने पर कमेंट किया था।
डॉ. एस. बी. गुप्त, लखनऊ (उ.प्र.)