'सिम्मी' के जज्बे को सलाम
बचपन से खेलों में अव्वल आना बलविंदर कौर का जुनून था। यही कारण था कि दसवीं कक्षा तक वह 'हॉकी', 'खो-खो', 'लांगजंप', 'हाईजंप', 'कबड्डी' में नेशनल तक खेल चुकी थीं और सिल्वर, गोल्ड, मेडल जीत चुकी थीं। खेल के मैदान में दौड़ता देख उन्हें नाम दिया गया था 'सिम्मी सुपरफास्ट'। जीतने का
बचपन से खेलों में अव्वल आना बलविंदर कौर का जुनून था। यही कारण था कि दसवीं कक्षा तक वह 'हॉकी', 'खो-खो', 'लांगजंप', 'हाईजंप', 'कबड्डी' में नेशनल तक खेल चुकी थीं और सिल्वर, गोल्ड, मेडल जीत चुकी थीं। खेल के मैदान में दौड़ता देख उन्हें नाम दिया गया था 'सिम्मी सुपरफास्ट'। जीतने का जुनून इस कदर था कि 1989 में हॉकी के मैदान में चोटिल होने के बावजूद वह मैदान में डटी रहीं। गोल्ड मेडल तो जीतीं, पर बायां पैर गवां बैठीं। उनके पैर के घाव नासूर बन गए थे। जिस कारण कमर के नीचे टांग को कमर से जोड़ने वाला भाग काटना पड़ा। कटे पैर से सिम्मी ने दसवीं और बारहवीं की। हर कोई रूप-रंग देखता और हमदर्दी जताने की कोशिश करता। संसार का रंग देख सिम्मी ने खुद को घर में कैद कर लिया। तब पिता मोहिंदर सिंह ने 1992 में जालंधर से सिम्मी को डिप्लोमा ऑफ मेडिकल लेबोरेटरी टेक्नीशियन करवाया। डिप्लोमा होने के बावजूद जालंधर के एक नर्सिग होम ने हर टेस्ट पास करने के बाद भी नौकरी नहीं दी, क्योंकि वह विकलांग थीं।
बनी दूसरों का सहारा
-तुम बेसहारा हो तो किसी का सहारा बनो। तुमको अपने आप ही सहारा मिल जाएगा।' इस गीत के अनुरूप ही सिम्मी ने विकलांगता के कारण नौकरी न मिलने पर स्वयं को टूटने नहीं दिया। अपने अधूरेपन को उन्होंने दूसरों के साथ बांटने के लिए ब्लाइंड स्कूल के बच्चों को पढ़ाने का मन बनाया। वोकेशनल रिहेबिलेशन ट्रेनिंग सेंटर से ट्रेनिंग लेकर वह नेत्रहीनों की जिंदगी में रोशनी भरने लगीं और अपनी बैसाखी के सहारे ही सही पर नेत्रहीन बच्चों को साक्षरता की राह पर चलना सिखाने लगीं।
खुशी और गम की धूप-छांव
सिम्मी के नसीब में ऊपरवाले ने खुशी व गम की धूप-छांव भी खूब लिखी थी। सिम्मी के मां-बाप ने अखबार में उनकी शादी के लिये विज्ञापन दिया। आरएसपुरा के अमरजीत सिंह (आर्मी) ने सिम्मी का हाथ थामने के लिए फोन पर ही हामी भरी तो सिम्मी ने उनसे कहा कि उन्हें पत्नी मानने वाला पति चाहिए न कि तरस खाकर साथ देने वाला। इसलिए फैसला मिलने के बाद ही किया जाए। खुशियों की किरणें उनके जीवन में पड़ीं। 20 मई 2002 को पुतली घर स्थित श्रीपीपली साहिब गुरुद्वारा में फेरे लेने के बाद सिम्मी की डोली अमरजीत अपने घर इसलिये नहीं ले गए कि कहीं उनके माता-पिता विकलांग सिम्मी को देखकर नाराज न हो जाएं। इस पर सिम्मी की डोली श्रीगंगानगर, आर्मी कैंट पहुंची। वहां अमरजीत को एक विकलांग लड़की को पत्नी के रूप में स्वीकार करने पर सम्मान मिला। जीवन में बिखरी खुशियों पर गम के बादल मात्र ग्यारह महीने बाद ही छा गए। 2003 में अमर की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई। इस दौरान सिम्मी गर्भवती थीं। 26 जुलाई 2003 को बेटी ने जन्म लिया। इस समय खुशी स्कूल में पढ़ रही है। पति की मौत के बाद सिम्मी को विधवा आश्रित कोटे से लैब टेक्निशयन की जॉब मिली।
घर-परिवार
सिम्मी के पिता मोहिंदर सिंह (रिटा. सैन्य अधिकारी) व मां सुरजीत कौर गृहिणी हैं। भले ही सिम्मी का जन्म अमृतसर के गांव तरसिक्का में हुआ, लेकिन पिता के सेना में होने के कारण उनका जीवनरथ देश के अनेक स्टेशनों से गुजरा है। उन्होंने स्कूली पढ़ाई ग्वालियर में की। सिम्मी के बड़े और इकलौते भाई मंजीत सिंह का 2010 में देहांत हो चुका है और बाकी पांच बहनों में रंजीत कौर सबसे बड़ी, उनके बाद नरिंदर कौर, सलविंदर कौर (2008 में देहांत), बलविंदर कौर (सिम्मी) व हरजिंदर कौर हैं। सिम्मी चाहती हैं कि उनकी बेटी दमनप्रीत कौर उर्फ खुशी पढ़-लिखकर आईएएस बने।
समाजसेवा को समर्पित
सिम्मी समाज के लिए जीती हैं। वह नेत्रहीन बच्चों को कोचिंग देती हैं तो समाज को नशे से दूर रहने की नसीहत भी। वह विकलांगता को अभिशाप मानने वालों को जीने की राह दिखा रही है। साथ ही ईमानदारी से देश की सेवा भी कर रही हैं, लेकिन देशवासियों से सवाल भी पूछती हैं कि मेरी काबिलियत पर नौकरी क्यों नहीं मिली? मैंने जिंदगी पर तरस खाना छोड़ दिया था, पर जो नौकरी मिली वो दिवंगत सैनिक की पत्नी होने के नाते तरस के आधार पर ही क्यों? सिम्मी के हौसले को सलाम करते हुए अंकुर प्रकाश राठी के शब्दों में कहा जा सकता है कि गम की अंधेरी रात में खुद को न यूं बेकरार कर, सुबह जरूर आएगी तू बस थोड़ा इंतजार कर..
(रमेश शुक्ला)