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अबला नहीं सबला है स्त्री

संघर्ष में तपकर खरा सोना बनना ही है मूल स्वभाव स्त्री का। यही भावना ले गई है कई स्त्रियों को सफलता के शिखर पर, उन्होंने न केवल अपने सपनों को जिया है, बल्कि हजारों अन्य महिलाओं की आंखों में भी भरे हैं सपने ..ऊंची उड़ान के.. सातवें आसमान के.. समाज काफी बदला है पायल कप

By Edited By: Published: Mon, 10 Mar 2014 12:10 PM (IST)Updated: Mon, 10 Mar 2014 12:10 PM (IST)
अबला नहीं सबला है स्त्री

संघर्ष में तपकर खरा सोना बनना ही है मूल स्वभाव स्त्री का। यही भावना ले गई है कई स्त्रियों को सफलता के शिखर पर, उन्होंने न केवल अपने सपनों को जिया है, बल्कि हजारों अन्य महिलाओं की आंखों में भी भरे हैं सपने ..ऊंची उड़ान के.. सातवें आसमान के..

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समाज काफी बदला है

पायल कपूर (इंटीरियर डिजाइनर)

एक विकसित और खुशहाल राष्ट्र उसके शिक्षित और साक्षर नागरिकों से ही बनता है। इधर महिलाओं ने भी बहुत उपलब्धियां प्राप्त की हैं। आज बहुत से ऐसे लोग हैं, जो भगवान से एक लड़की मांगते हैं। औरत काम करके अपना घर चला रही है। इतनी महंगाई हो गई है कि अकेले आदमी की कमाई से घर चलाने में मुश्किल हो रही है। दूसरी बात यह है कि अब लाइफस्टाइल भी चेंज हो गई है। महिलाएं अब सभी क्षेत्रों में आगे आ रही हैं, क्योंकि महिलाएं पुरुषों से अधिक सहज-सरल होती हैं।

नारी सशक्तीकरण के लिए जो भी प्रयास किया जा रहे हैं, वे अभी भी बहुत कम हैं। उनके लिए अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है। अभी भी लोग अपनी बेटियों को बाहर नहीं भेजना चाहते हैं। हमारे देश में स्कूल सबसे महंगे हैं और यूनिवर्सिटी सस्ती, जबकि स्कूल सस्ते होने चाहिए और यूनिवर्सिटी महंगी।

सभी परिवारों में प्राय: देखा जाता है कि बहू आ जाने के बाद घर में सब कुछ चेंज हो जाता है, जबकि लड़कियां परिवार की बहुत केयर करती हैं। महिलाओं की स्थिति पहले से बेहतर हुई है, लेकिन अभी भी बहुत काम बाकी है। मीडिया की वजह से लोगों को जानकारी मिल जाती है। समाज की सोच भी काफी हद तक बदली है। यही वजह है कि इन दिनों महिलाएं और पुरुष दोनों बराबर दिखाई देते हैं। हर प्रोफेशन में महिलाएं पुरुषों से अच्छा कर रही हैं। घर, परिवार और बच्चों की जिम्मेदारी महिलाओं पर ही होती है। पहले से महिलाएं बहुत मजबूत हुई हैं। वे अपने अधिकारों को भी अच्छी तरह जानती हैं। फिर भी जो लोग उनके साथ बुरा व्यवहार करते हैं, शायद उनकी परवरिश में ही कोई खोट है। इसके लिए माएं ही जिम्मेदार हैं, क्योंकि वे अपने बेटे को यह नहीं सिखाती हैं कि लड़के और लड़की में कोई अंतर नहीं है, दोनों बराबर हैं। यह सब कुछ परिवार पर निर्भर करता है। जहां संस्कार अच्छे होंगे वहां कभी गलत काम नहीं हो सकता है।

हर स्त्री में ताकत छिपी है

पदमा सचदेव (लेखिका)

स्त्रियों के साथ भेदभाव करना कोई नई बात नहीं है। यह तो सदियों से चला आ रहा है, जो स्त्रियां आर्थिक रूप से मजबूत दिखाई देती हैं, उनका प्रतिशत भी बहुत कम है। महिला दिवस भी श्राद्ध की तरह आता है और चला जाता है। वैसे तो हर पल हर दिन स्त्रियों का ही होता है। फिर किसी एक दिन महिला दिवस मनाने से कोई फायदा नहीं है। न ही इससे कोई दिनचर्या में फर्क पड़ता है। हर स्त्री में एक छिपी हुई ताकत होती है। इसलिए वह जो चाहे कर सकती है। यह तो स्त्री को बेवकूफ बनाने का एक तरीका है।

पहले घर-परिवार में लड़के को अधिक अहमियत दी जाती थी। आज भी दी जा रही है। इन दिनों थोड़ा सा कम हुआ है। एक मुट्ठी चावल से कंकड़ निकाल देने से सारा चावल साफ नहीं हो जाएगा। आए दिन छोटी-छोटी बच्चियों के साथ रेप हो रहा है। इसको रोकने के लिए फांसी की सजा ही कारगर साबित हो सकती है। दूसरा कोई रास्ता नहीं है।

लड़की का साथ कोई नहीं देता

कमलेश जैन (सुप्रीम कोर्ट की वकील)

महिला दिवस कुछ खास नहीं, बस एक रिमाइंडर की तरह है। उस दिन महिलाओं को याद कर लिया जाता है कि उसका भी अपना एक अलग महत्व है। अभी भी महिलाओं का जितना विकास होना चाहिए उतना विकास नहीं हुआ है। दरअसल, स्त्रियों को बराबरी का हक और स्वतंत्रता का अधिकार कानून ने ही दिया है। यह सच है कि पहले से समाज में जागरूकता आई है और लोगों की सोच भी बदली है। यही वजह है कि अब वे बेहतर स्थिति में हैं, लेकिन उसी अनुपात में कुछ पुरूष स्त्रियों को फूटी आंखों से देखना भी नहीं चाहते हैं। जब कोई क्रांति होती है तो उससे पहले बहुत खून-खराबा होता है। वही स्थिति आजकल है। इसके लिए कुछ पुरुष ही जिम्मेदार हैं। पुरूषों का माइंडसेट ही बिगड़ा हुआ है। स्त्रियों की सुरक्षा को ध्यान में रखकर ही 'सेक्सुअल हैरेसमेंट एक्ट ऐट वर्कप्लेस' बनाया गया है। कई ऐसी मांएं आज भी हैं, जो रेपिस्ट बेटे को बचाने के लिए पूरी कोशिश करती हैं। वहीं दूसरी तरफ लड़की का साथ कोई नहीं देता है। यहां तक कि मां-बाप भी हाथ खींच लेते हैं।

बेटे-बेटी में भेदभाव न हो

प्रतिमा पांडे (फैशन डिजाइनर)

महिला दिवस क्या मनाना..। देश में आए दिन महिलाओं और छोटी-छोटी बच्चियों के साथ दुष्कर्म की घटनाएं हो रही हैं। यहां तक की सैलानियों को भी शिकार बनाया जा रहा है, जबकि हमारी संस्कृति में अतिथि को भगवान का दर्जा दिया जाता है। मेरी राय में हर दिन महिला दिवस होना चाहिए। उस दिन खासतौर से याद दिलाया जाता है कि स्त्रियों की इज्जत करो। महिलाओं को खुद ही अपने को सुरक्षित रखना पड़ेगा। औरत ही बेटे को जन्म देती है और उसी से सुरक्षित नहीं है। यह तो सदियों वाली सोच का ही परिणाम है कि मॉडर्न पैरेंटस भी एक बेटा चाहता है। मां को बेटा और बेटी में भेदभाव नहीं करना चाहिए, क्योंकि प्रकृति ने बेटे और बेटी के बीच कोई भेद नहीं किया है। हमें कोई हक नहीं है कि हम बेटियों को नजरअंदाज करें।

पूरी दुनिया में स्त्रियों के साथ भेदभाव किया जाता है। अमेरिका जैसे देश में महिलाओं के खिलाफ हिंसा होती है। घर-परिवार छोड़ना उनके लिए आसान नहीं होता है। इसलिए वे सहती हैं। मां अपने बेटे को यह नहीं सिखाती है कि स्त्रियों की इज्जत करो, वे भी हमारी तरह इंसान हैं, जबकि हमारी संस्कृति में नारी को देवी कहा गया है।

रोज मनाएं महिला दिवस

उषा ठाकुर (समाज सेविका)

लड़कियां मां के पेट से लेकर बाहर तक कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। चारों तरफ महिलाओं का शोषण हो रहा है। वैसी स्थिति में साल में एक दिन महिला दिवस मना लेने से कोई फायदा नहीं है। दिनों दिन घरेलू हिंसा बढ़ती ही जा रही है। यहां तक कि महिला थाने में शिकायत करने पर भी पुरुषों का ही पक्ष लिया जाता है। महिला थाने को संवेदनशील होना चाहिए, जो महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता दिखाए। बहुत लड़कियां पढ़ाई-लिखाई छोड़कर घर बैठ जाती हैं, क्योंकि कुछ बदतमीज लड़के उनको परेशान करते हैं। इतना ही नहीं, लड़कियों के पर तेजाब फेंकने की धमकी भी देते हैं। जब महिलाओं का ही सम्मान ही नहीं है तो ऐसे महिला दिवस मनाने से क्या फायदा। रोज महिला दिवस मनाकर महिलाओं को उचित अधिकार दें और जो उनके प्रति अन्याय हो रहा है उसके खिलाफ कड़ी सजा दें। ताकि उसकी हिम्मत न पड़ें। ऐसी परिस्थिति में महिला सशक्तीकरण की बात ही कहां रह जाती है।

हर हालत में औरत को ही दोषी ठहराया जाता है और बेटे से बेटी को कमतर आंका जाता है। शहर में तो ये बातें सामने भी आ जाती हैं, पर गांव की स्थिति तो बहुत ही दयनीय है। हर रोज रेप की घटनाएं हो रही हैं। इसके लिए पुरुषों की मानसिकता ही जिम्मेदार है। इसके अलावा हमारी व्यवस्था भी जिम्मेदार है। जब तक स्त्री और पुरुष दोनों मिलकर एक संस्था की तरह काम नहीं करेंगे तब तक घरेलू हिंसा कम नहीं होगा। नारी के सम्मान से ही परिवार तरक्की करता है और बच्चे भी संस्कारित होते हैं। नारी ही देश, परिवार और समाज की धुरी है।

सुधार की बहुत आवश्यकता है

भारती तनेजा (ब्यूटीशियन)

महिला दिवस तो हर रोज होना चाहिए। किसी एक ही दिन क्यों। अभी भी महिलाएं आराम से रात में कहीं बाहर नहीं जा सकती हैं, क्योंकि वे सुरक्षित नहीं है। औरतों को हमेषा पुरुषों से कमतर आंका जाता है। यहां तक कि यदि मर्द से औरत का नाम अधिक हो जाता है तो वे सहन नहीं कर पाते हैं। बहुत कम ऐसे हसबैंड होते हैं जो बर्दाश्त कर लेते हैं। ऐसी स्थिति में हमलोग एक समान कहां हैं। मर्द औरत को अहमियत का दर्जा नहीं देना चाहते हैं तो वहीं दूसरी तरफ आज औरत ही औरत को आगे बढ़ने नहीं देती है। पति-पत्नी दोनों काम करते हैं पर बहुत कम पति होते हैं जो पत्नी के काम में हाथ बटाते हैं।

जब बेटी घर से बाहर निकलती है तो हर मां को यह चिंता सताने लगती है कि वह सही सलामत घर वापस आ जाए। वहीं दूसरी तरफ बेटे के बारे में इस तरह की चिंता नहीं होती है। यह भी एक कारण है कि लोग चाहते हैं कि एक लड़का हो जाए, क्योंकि लोगों का मानना है कि लड़के से ही वंश चलता है, जबकि लड़कियां तो पराए घर चली जाती हैं।

महिलाओं की स्थिति पहले से काफी सुधरी है। फिर भी सुधार की बहुत आवश्यकता है। बड़े शहरों की स्थिति तो थोड़ी ठीक भी है, पर गांवों की हालत तो बहुत ही दयनीय है। दो-तीन साल की मासूम बच्चियों के साथ रेप हो रहा है। लोगों में कानून का खौफ नहीं रह गया है। समाज में पढ़े-लिखे लोग अपने बेटों को समझाते हैं, लेकिन जिस तरह वे अपनी बेटियों को समझाते हैं कि यहां मत जाओ, वह मत करो। उसी तरह बेटों को भी सिखाना चाहिए।


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