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उपनिवेशवाद के भरोसे आधुनिकता संभव नहीं

भारतीय समाज के पास भीतरी प्रतिरोध और आंदोलनों के बल पर आधुनिकता को प्राप्त करने की कठिन प्रक्रिया का कोई दूसरा विकल्प नहीं है। भारतीय उपन्यासों में भी आधुनिकता, जिसका संबंध समानता, शोषण मुक्ति या व्यक्ति की स्वीकृति से रहा है, की यही गहरी चाह व्यक्त होती है।’’

By Naveen KumarEdited By: Published: Mon, 04 Apr 2016 12:43 PM (IST)Updated: Mon, 04 Apr 2016 12:58 PM (IST)
उपनिवेशवाद के भरोसे आधुनिकता संभव नहीं

आज के युवा आलोचकों में जिनके पास विपुल अध्ययन लेखन और चिंतन है उनमें से एक हैं वैभव सिंह जो हाल ही में अपनी पुस्तक भारतीय उपन्यास और आधुनिकता पर देवीशंकर अवस्थी पुरस्कार दिए जाने की घोषणा से चर्चा में हैं। हिंदी में उनका लेखन व्यवहारिक समीक्षा आलोचना पर ज्यादा न केंद्रित होकर इतिहास, राष्ट्रवाद, आधुनिकता व नवजागरण के कुछ बुनियादी मुद्दों पर केंद्रित रहा है। 19वीं सदी के नव जागरण पर वैभव सिंह ने सिलसिलेवार अध्ययन किया है तथा इसी का परिणाम है कि अपनी पहली ही पुस्तक इतिहास और राष्ट्रवाद से वे आलोचना के सम्मुख एक चुनौती बनकर खड़े हुए। कुछ विशिष्ट अनुवादों के अलावा भारतीय उपन्यास और आधुनिकता के जरिए उन्होंने 19वीं सदी के भारतीय नव जागरण को आधुनिकता के आईने में देखा और परखा है। व्यवहारिक आलोचना की पुस्तक ‘शताब्दी का प्रतिपक्ष’ लिखकर उन्होंने न केवल यह सिद्ध किया कि वे कहानी और उपन्यास के मूलगामी पहलुओं पर विचार करने वाले लेखक हैं बल्कि निराला, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, फैज, शमशेर और अज्ञेय के काव्य पर लिखकर जताया कि शुद्ध कविता की परख-पड़ताल करने का माद्दा भी उनमें खूब है तथा कविता के लिए वे अपनी कसौटियों को उसके अनुरूप मांजते चलते हैं। आलोचना की उबाऊ एकरसता, स्फीतिभरे सुदीर्घ वक्तव्यों तथा जड़ीभूत भाषा से अलग एक वाचिक अदायगी उनके यहां दिखती है। सितंबर 74 में उन्नाव में जन्मे व इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए और जेएनयू से पीएचडी तक की तालीम हासिल करने वाले वैभव सिंह अपनी धुन के राही हैं। अपने समय, समाज, संस्कृति, राष्ट्रवाद, साहित्य और आधुनिकता को समझने का उनका अपना तरीका है। वे प्रगतिवादी विचारधारा से केवल वैचारिकी के नाते नहीं, जीवन के बुनियादी उद्देश्यों के चलते जुड़ते हैं। इसीलिए वे कथा साहित्य के भीतर प्रवेश करते हुए केवल भाषाई तहों के सम्मोहन में बंधकर नहीं रह जाते बल्कि आख्यान के जमीनी यथार्थ और निहितार्थ तक प्रवेश करते हैं। वे कला को सामाजिक परिवर्तनों की अनिवार्य शर्त मानते हैं। नवजागरण के रास्ते यदि आधुनिकता ने जीवन और समाज में प्रवेश किया तो उपन्यास इसी आधुनिकता की देन हैं। इसीलिए आधुनिकता और सामाजिक परिर्वतनों को उन्होंने 19वीं सदी के कुछ श्रेष्ठ उपन्यासों ‘परीक्षागुरू’, ‘द राजमोहन्स वाइफ’, ‘सरस्वतीचंद्र’ और ‘इंदूलेखा’, ‘रमाबाई’, ‘दस द्वारे का पींजरा’, ‘गोरा’, ‘उमरावजान अदा’ और उर्दू उपन्यास, ‘छह माण आठ गुंठ’ के पाठ से परखा और औपन्यासिक आख्यान, राष्ट्रवाद और टैगोर, भाषा विवाद, सती परंपरा और जेरोजिओ जैसे सुधारवादी चिंतकों के जीवन और निष्कर्षों के आधार पर भारतीय उपन्यासों में आधुनिकता के अलक्षित आयामों को उद्घटित करने का प्रयत्न किया। हमारी आधुनिकता उपनिवेशवाद द्वारा प्रायोजित है या इसमें भारतीय आख्यान और औपन्यासिकता और कुछ युगांतरकारी शख्सियतों का भी अपना अवदान है इस सवाल पर वैभव कहते हैं, ‘‘भारत की आधुनिकता पर उपनिवेशवाद का बहुत साफ प्रभाव हैं। पर उपनिवेशवाद के भरोसे बैठकर आधुनिकता को कोई समाज नहीं हासिल कर सकता है। भारत को उपनिवेशवाद से आधुनिकता ग्रहण करते हुए भी अपनी मौलिक ढंग की आधुनिकता के लिए चिंतित रहना पड़ा है। भारतीय समाज के पास भीतरी प्रतिरोध और आंदोलनों के बल पर आधुनिकता को प्राप्त करने की कठिन प्रक्रिया का कोई दूसरा विकल्प नहीं है।

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भारतीय उपन्यासों में भी आधुनिकता, जिसका संबंध समानता, शोषण मुक्ति या व्यक्ति की स्वीकृति से रहा है, की यही गहरी चाह व्यक्त होती है।’’


ओम निश्चल
जी-1/506 ए, उत्तम नगर, नई दिल्ली


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