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खुद बनाए अपने रास्ते

उम्र महज एक संख्या है। आप 50 के हों या 70 के, सोचने का ढंग सकारात्मक है और हर पल नया सीखने को तैयार हैं तो उम्र बाधा नहीं बन सकती। यह बात 73 वर्षीय पद्मा सचदेव के लिए कही जा सकती है। जीवन से भरपूर हैं पद्मा और हर चीज को सहजता के साथ स्वीकारती हैं। कह सकते हैं कि उनके शानदार-शालीन व्यक्तित्व के प्रभाव से सामने वाला अछूता नहीं

By Edited By: Published: Sat, 20 Jul 2013 03:43 PM (IST)Updated: Sat, 20 Jul 2013 03:43 PM (IST)
खुद बनाए अपने रास्ते

उम्र महज एक संख्या है। आप 50 के हों या 70 के, सोचने का ढंग सकारात्मक है और हर पल नया सीखने को तैयार हैं तो उम्र बाधा नहीं बन सकती। यह बात 73 वर्षीय पद्मा सचदेव के लिए कही जा सकती है। जीवन से भरपूर हैं पद्मा और हर चीज को सहजता के साथ स्वीकारती हैं। कह सकते हैं कि उनके शानदार-शालीन व्यक्तित्व के प्रभाव से सामने वाला अछूता नहीं रह सकता।

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बचपन में आप पिता के साथ संस्कृत के श्लोक पढ़ा करती थीं?

हमने बोलना शुरू ही किया था, तभी पिताजी ने संस्कृत के श्लोक सिखा दिए थे। मैं संस्कृत के श्लोक पढ़ती तो लोग मुझे सुनने आते।

पिता का प्रभाव आप पर गहरा दिखता है?

हां, दुर्भाग्य से वह हमारे बीच ज्यादा समय नहीं रहे।

क्या इसी खालीपन ने आपको लेखन की ओर प्रेरित किया?

हां, पिता के जाने के बाद मैंने गांव का जीवन करीब से देखना शुरू किया। तब वहां औरतें लोकगीत गाती थीं। यहां एक विधा है गाने की पांखा। यह जम्मू के अलावा कहीं और नहीं है। लोकगीतों से मैं चमत्कृत थी। पिता के जाने के बाद एक खालीपन आ गया था। जब वह थे तो मैं चाहती थी कि खूब पढूं़, प्रथम आऊं ताकि लोग पिता को बधाई दें, लेकिन उनके जाने के बाद इस ओर रुचि कम हो गई। मन लोकगीतों में रमने लगा। नवरात्र में हम व्रत रखते और कीर्तन करते थे। मैं बहुत अच्छी ढोलक बजाती थी, आज भी बजाती हूं। हम माता की भेंटे गाते थे जहां भी कोई भूल जाता, मैं चंद पंक्तियां जोड़ देती और गीत बढ़ता जाता। मेरी उम्र 10-11 की रही होगी, लेकिन लिखना बस यहीं तक सीमित था। कारण, तब मुझे लगता था कि लिखने की भाषा हिंदी है। तीसरी कक्षा के बाद मैं जम्मू आ गई। वहां स्कूल में गाई जाने वाली प्रार्थना भी मेरी ही लिखी होती थी। पांचवीं के बाद एक दूसरे स्कूल में मेरा दाखिला हुआ। यहां से लगा कि नहीं अब कुछ करना होगा।

आपने पहली कविता 14 की उम्र में लिखी। कविताओं के लिए किसने प्रोत्साहित किया?

टूट जाते हैं कभी मेरे किनारे मुझमें

डूब जाता है कभी मुझमें समंदर मेरा

इस एक शेर में लेखन की पूरी प्रक्रिया समाई हुई है। देखिए, हम सबके भीतर यादों का अथाह समंदर होता है। किसी से प्यार करने का, नफरत का, रिश्तों का बड़ा सा समंदर हमारे भीतर समाया रहता है। मैं प्रकृति के करीब थी.. प्रकृति ही मेरी प्रेरणा थी। पिता के साथ हमने कश्मीर की खूबसूरती के कई नजारे लिए थे। श्रीनगर में उनकी पोस्टिंग थी तो वह हमें हर संडे निशात, चश्माशाही, शालीमार जैसे सारे बागों की सैर कराते। उन दिनों की यादें मेरे जेहन में हैं। आज वह कश्मीर नहीं रहा, लेकिन मैंने उस कश्मीर को अपनी यादों में जिंदा रखा है। मैं जेहनी तौर पर हमेशा जम्मू-कश्मीर में रहती हूं, बस शरीर दिल्ली में है मेरा।

तब लड़कियों का बाहर निकलना मुश्किल था तो आपके लिए आगे बढ़ना कैसे संभव हुआ?

आठवीं कक्षा में थी, उन दिनों नया-नया रेडियो आया था। नई प्रतिभाओं की खोज हो रही थी। मैं हर रविवार रेडियो में कार्यक्रम करती। एक बार बोलने के 20 रुपये मिलते थे मुझे। 10वीं के बाद कॉलेज आई.. तब तक मैं मशहूर हो चुकी थी। वर्ष 1955 में एक बड़ा मुशायरा हुआ, जिसके ऑर्गेनाइजर्स में मेरी एक सहेली के भाई दुष्यंत रामपाल भी थे। उन्होंने मुझे कविता पढ़ने को कहा.. इस तरह शुरुआत हो गई, लेकिन इसी बीच मैं बीमार हो गई। बचने की उम्मीद नहीं थी, लेकिन बच गई। मैं तब सेकंड ईयर में ही थी। रोजी-रोटी भी कमानी थी तो रेडियो में इंटरव्यू देने गई। मुझे बोलने को कहा गया और मैंने बोलना शुरू किया तो बीच में ही मुझे रोक दिया गया। आउटस्टैंडिंग कैटेगरी में मेरा सेलेक्शन हुआ था। मुझे पांच भाषाएं आती थीं, पंजाबी, डोगरी, हिंदी, उर्दू, कश्मीरी। अंग्रेजी कम आती थी, अब भी कम बोलती हूं। इसी बीच सुरिंदरजी से मेरी शादी हो गई।

पति का कितना सहयोग मिला?

उन्होंने हमेशा प्रोत्साहित किया। कभी रोका-टोका नहीं। उनमें एक ही अवगुण है कि वह गुस्सैल हैं। मैं उनका बहुत सम्मान करती हूं। आज अगर मैं जिंदा हूं तो बस इन्हीं के कारण।

आपने कविताएं ज्यादा लिखीं। क्या फर्क है प्रोज और पोएट्री में? कौन सी विधा ज्यादा मुश्किल है?

देखिए, कविता खुद आती है मन में, उसे लिखना नहीं पड़ता, लेकिन गद्य में मेहनत करनी पड़ती है। इसे लिखना पड़ता है। वैसे मैंने हिंदी में भी बहुत लिखा है। इसमें चार नॉवेल हैं, कुछ मैटर अभी छपने को तैयार है, बस लिखे हुए को व्यवस्थित करना है। यात्रा-संस्मरण हैं। इसके अलावा मैंने 12-14 किताबों का अनुवाद भी किया है। अनुवाद के कई बडे़ अवॉर्ड मुझे मिले हैं। डोगरी में मेरी नौ किताबें हैं। दो नॉवेल हैं। मेरी आत्मकथा भी तीन भाषाओं में है। डोगरी, हिंदी और अंग्रेजी में। हिंदी में सबसे पहले प्रकाशित हुई। साक्षात्कारों की तीन पुस्तकें हैं, चौथी तैयार है।

आपके पति बडे़ गायक हैं। क्या संगीत में आपकी रुचि थी?

वह महान गायक हैं, लेकिन पहले मुझे यह बात मालूम नहीं थी। शादी हुई तो मैंने इनसे कहा कि तुम कितना भी अच्छा गाओ, मेरी जैसी ढोलक नहीं बजा सकते। बाद में मुझे पता चला कि वह तो बडे़ शास्त्रीय संगीतकार हैं। सुबह-सुबह रियाज करते हैं तो घर का माहौल बेहद शांत हो जाता है। शास्त्रीय संगीत में यह ताकत है कि वह मन को बेहद सुकून देता है।

आप कितनी धार्मिक हैं?

जब मुंबई में थी तो सोमवार का व्रत रखती थी और मंदिर भी जाती थी। सुबह थोड़ी पूजा कर लेती हूं। ऊपर जाना है तो थोड़ा राब्ता रहना चाहिए न। वहां जाऊं तो लोग पहचान लें, दुआ-सलाम कर लें।

आपको इतने अवॉर्ड मिले। आपने अपनी एक अलग पहचान बनाई है। अपनी पहचान का सुख क्या है?

बहुत बड़ा सुख है। कोई यह नहीं कह सकता कि पद्मा को उन्होंने बनाया। मैंने खुद अपनी राह बनाई। हालांकि ऐसे लोग भी थे, जिनका हाथ मेरे सिर पर था। दिनकर जी, महादेवी वर्मा, अमृता प्रीतम जैसे तमाम लोगों का साथ था। डोगरी पहले कभी पठानकोट से बाहर नहीं निकली थी। मैंने उसे साहित्य जगत में खास स्थान हासिल कराया। एक स्त्री जन्म देने की पीड़ा से गुजरती है और फिर उसका सुख पाती है। बिल्कुल ऐसा ही है सृजन का सुख। अभी तो मेरे बहुत से काम बाकी हैं, उन्हें पूरा करने में जुटी हूं।

मुंबई से दिल्ली कैसे आ गई?

मेरी बेटी मीता (मनजीत) को मुंबई की हवा सूट नहीं करती थी। डॉक्टर के कहने पर मुझे दिल्ली आना पड़ा। उस समय मुंबई में इस्मत आपा (इस्मत चुगताई), ऐनी आपा (कुरुर्तल-एन-हैदर), राजिंदर सिंह बेदी जैसे बड़े-बड़े उर्दू लेखक थे। उनकी संगत छोड़कर दिल्ली आना बहुत अखरा।

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