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मैं सच कहूं तो स्वांत: सुखाय लिखता हूं

<p>[डा. ओम निश्चल] व्यंग्य, नाटक, उपन्यास व कहानी हर विधा में नरेन्द्र कोहली को कौन नहीं जानता। उनके लाखों पाठक देश- विदेश में बिखरे हैं। उनके उपन्यासों की लंबी श्रंखलाएं हैं। चाहे महासमर हो, अभ्युदय हो या तोडो कारा तोडो इनके कई कई खंड लिखकर उन्होंने जो लोकप्रियता पाई है वह हिंदी में उनके समकालीनों में से शायद ही किसी को सुलभ हो। </p>

By Edited By: Published: Mon, 04 Mar 2013 09:05 PM (IST)Updated: Mon, 04 Mar 2013 09:05 PM (IST)
मैं सच कहूं तो स्वांत: सुखाय लिखता हूं

[डा. ओम निश्चल] व्यंग्य, नाटक, उपन्यास व कहानी हर विधा में नरेन्द्र कोहली को कौन नहीं जानता। उनके लाखों पाठक देश- विदेश में बिखरे हैं। उनके उपन्यासों की लंबी श्रंखलाएं हैं। चाहे महासमर हो, अभ्युदय हो या तोडो कारा तोडो इनके कई कई खंड लिखकर उन्होंने जो लोकप्रियता पाई है वह हिंदी में उनके समकालीनों में से शायद ही किसी को सुलभ हो।

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6 जनवरी, 1940 को सियालकोट में जन्मे कोहली ने शुरुआती तालीम लाहौर में हासिल करने के बाद भारत में जमशेदपुर से आगे की पढाई की और बाद में दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए. तथा पी.एच.डी. की उपाधि ली और 1963 से लेकर 1995 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के कालेजों में अध्यापक के रूप में कार्यरत रहे। छह वर्ष की अल्पवय से ही पैदा हुई लिखने की यह प्रवृत्ति उत्तरोत्तर परवान चढी और आज उनकी विभिन्न विधाओं में सौ से भी ज्यादा कृतियां हैं। उन्होंने हिंदी समाज में फैलाए गए इस मिथ को झुठलाया है कि हिंदी में पाठक नहीं है। उनके उपन्यास न भूतो न भविष्यति पर व्यास सम्मान घोषित होने के अवसर पर उनसे हुई डॉ. ओम निश्चल की बातचीत यहां प्रस्तुत है।

ओम निश्चल: कोहली जी, शलाका सम्मान, पं, दीन दयाल उपाध्याय सम्मान, अट्टहास सम्मान सहित तमाम पुरस्कारों के बाद अब व्यास सम्मान आपके खाते में है। इसे पाकर कैसा महसूस करते हैं?

नरेन्द्र कोहली: ओम जी, सम्मान पाकर न कोई आदमी उदासीन होता है, न परेशान होता है, खुश ही होता है, लिहाजा मुझे भी अच्छा ही लग रहा है।

कहा जाता है महाभारत, रामायण, पुराण और मिथकीय आख्यानों को जिस तरह खंगाल कर आपने इन उपजीव्य ग्रंथों की कथाओं का पुनर्लेखन कर औपन्यासिकता का जो रूप प्रदान किया वह हिंदी में सांस्कृतिक पुनर्जागरण की कोटि में आता है। ऐसा करने के पीछे आपके मन में क्या संकल्पना थी?

देखिए आप जानते हैं कि लिखने से पहले यह सब कुछ नहीं सोचा जाता कि इसका क्या स्वरूप बनेगा। सृजन स्वत: होता है। हां जब लिखा हुआ छप गया तो ऐसे प्रश्न लोगों के मन में उठे, अपने मन में भी उठे हैे। तब सोचा कि क्या यह देश की स्वतंत्रता के लिए है, पुनरुत्थान के लिए है या एक स्वाभाविक अभिव्यक्ति के रूप में है। मैं तो कहूंगा कि मन में जो चित्र बने, समकालीन जीवन के प्रतिबिम्ब के रूप में वे एक तरह से स्वत: स्फूर्त रूप में ही बने। इसलिए यह सब मैने अपनी अभिव्यक्ति के लिए लिखा, स्वांत:सुखाय लिखा। इसका यश मिलेगा या अपयश यह सब नहीं सोचा। ये सारी बातें सृजन के बाद की हैं।

आखिर क्या वजह थी कि शुरूआती पारिवारिक सामाजिक उपन्यासों साथ सहा गया दुख, क्षमा करना जीजी के बाद यथार्थवादी किस्सागोई से आपका मन विरत होकर ऐतिहासिक और मिथकीय आख्यानों की पुनर्रचना की ओर मुड गया। और इन्हीं आख्यानों में डूब कर रह गया?

मेरे शुरूआती उपन्यासों का जो फलक है वह बहुत सीमित है और ये जो कथाएं हैं, उनका फलक व्यापक है, विजन व्यापक है। दरअसल, कोई लेखक अपने समय से स्वतंत्र नहीं होता। इन कथाओं, आख्यानों के जरिए जो हमारे आसपास है, मैं उसे ही चित्रित कर रहा हूं। देश, काल, पात्र और परिस्थितियों की ऊपर की परत हटाकर देखें तो यही हमारा-आपका अपना समय है। समाज वही है, समस्याएं वही हैं। चाहे राजनीति की हों, समाज की हों, या देश की- तो, प्रस्तुत तो मैने अपने ही समय को किया है। धृतराष्ट्र का दरबार क्या आपको लगता है, दिल्ली के दरबार से अलग है? वही मोह, वही सत्ता के प्रति आसक्ति। सारा कुछ वैसा ही है। मेरे उपन्यासों का फलक मिथकीय या ऐतिहासिक भले हो, ऐसा नहीं है कि वह आज के यथार्थ से अलग है।

सामाजिक और यथार्थवादी उपन्यासों की परंपरा के विपरीत ऐतिहासिक पौराणिक मिथकीय चरितगाथा क्या यथार्थ से पलायन नहीं है। इन कृतियों के आईने में अपने युग के समकालीन का निर्वाह आपने कैसे किया है?

कहा न मैने कि कोई भी अपने समय से स्वतंत्र नहीं होता। लोभ, मोह, क्रोध सभी वैसे ही हैं। प्रकृति के नियम वही हैं। मनुष्य वैसे ही स्वार्थी है. स्वकेंद्रित है। राजाओं की बात आप देखिए। राजा केवल अपने राज्य की चिंता करता है पर ऋषि पूरी मानवता की चिंता करता है। समाज की चिंता करता है। वह हितचिंतन में लगा रहता है। प्रकृति के नियम बदलते नहीं। सोने की लंका तब भी थी, अब भी है। यह और बात है कि वह अमरीका में है। वानर, भालू पूंछ वाले हैं तो वानरियां सुंदरियां भी हैं। एक पिछडा हुआ समाज जिसे आगे आने का अवसर नहीं मिला, ऋषिगण उन्हें शिक्षा देकर आगे बढाते थे पर बौद्धिक नेतृत्व को नष्ट करने वाले राक्षस तब भी थे, आज भी हैं। कमजोर तबकों की आवाज को दबाने का प्रयत्न तब भी होता था, आज भी। तब के यथार्थ से आज का यथार्थ कोई अलग नहीं है। बहुत हद तक समाज वैसा ही है, जीवन वैसा ही है। लेखक इन बहुत सी चीजों को समेटता है तब उसके लेखन से पाठक का तादात्म्य बनता है।

अब तक महासमर,अभ्युदय और तोडो कारा तोडो की कई कई कडियां आप लिख चुके हैं। फिर भी क्या आपको लगता है इन आख्यानों के जरिए अभी बहुत कुछ कहा जाना शेष है। फिलहाल, आधुनिक युग के नायक विवेकानंद आपकी कथाकृतियों के केंद्र में है। तोडो कारा तोडो के छह खंड सामने आ चुके हैं। अभी और कितने खंडों में इसे पूर्णता मिलेगी?

कहा जाना तो हमेशा ही शेष रहेगा। ऐसा नहीं है कि सब कुछ कह दिया गया। हमारा जीवन कितना शेष है? समय कितना है, क्या उसमें कर सकता हूं, यह देखना होगा। हां, तोडो कारा तोडो के दो खंड अभी और करने हैं। यानी आठ खंडों में यह रचना सम्पूर्ण होगी। देखना यह है कि ऊर्जा कितनी है। यों अभी सृजन की ऊर्जा समाप्त नहीं हुई है। पर कितना कुछ बाकी है अभी, कितना कुछ कर सकूंगा, कितना अगली पीढियों के लिए छोड जाऊंगा, कह नहीं सकता।

पुरस्कृत कृति न भूतो न भविष्यति के केंद्र में भी विवेकानंद ही हैं। इसकी अंतर्वस्तु तोडो कारा तोडो से कितनी अलग है?

यह असल में एक अलग शिल्प में लिखा गया उपन्यास है। कुछ अलग कारणों से इसे अपने आप में एक पूर्ण उपन्यास के रूप में लिखा गया। इसलिए इसमें वह चिंतन, वह दर्शन, विस्तृत कथानक तो नहीं है पर इसे सीधे सीधे फिल्म के शिल्प में लिखा गया है, जिससे एक ही खंड में लोग उसका पूरा आनंद उठा सकें। तोडो कारा तोडो वाली धारा या मानसिकता में लिखता तो यह उसी का अंग होकर रह जाता। स्वतंत्र उपन्यास के रूप में लिखा तो इसका भी बेहद स्वागत हुआ। जो विस्तार से पढने के आदी हैं, उन्हें लगा कि यह तो झटपट समाप्त हो गया।

आज जहां लंबे उपन्यास पढने का धीरज पाठकों में लुप्त हो रहा है, पाठकों का रोना अलग है, वहीं आप हैं कि सीरीज पर सीरीज लिखे जा रहे हैं और पाठकों का टोटा बिल्कुल नहीं। इसका क्या रहस्य है?

ओम जी, हर उपन्यास का अपना पाठक वर्ग होता है। आखिर इस उपन्यास को भी काफी लोकप्रियता मिली। इसे वाणी प्रकाशन ने छापा तो इसका भी भरपूर स्वागत हुआ। मुझे याद है दीक्षा तब निकली भी नहीं थी तो नागार्जुन मेरे यहां आए। बोले डेढ सौ पेज से ज्यादा कोई नहीं पढता नरेन्द्र, इसलिए छोटे उपन्यास लिखो। पर मैं अपनी तरह से लिखने वाला। पहला और दूसरा खंड 250 पृष्ठों का था। तीसरा पांच सो पेज का हुआ तो प्रकाशक से पूछा अब क्या करें। प्रकाशक ने कहा कि मना कौन कर रहा है, जितना जाए जाने दीजिए। लोगों को अच्छा लगता है तो पढेंगे ही। अभिप्राय यह कि पाठक यह नहीं देखता कि यह कितना लंबा उपन्यास है, वह पठनीयता देखता है, किस्सागोई देखता है। आखिर लंबा तो वार एंड पीस भी है पर पाठक उसे पसंद करते हैं। मेरे उपन्यास कोई सस्ते भी नहीं है कि सब खरीद सकें, पर गरीब से गरीब पाठक भी इसे पढ रहा है। यह मिथ है कि हिंदी में पाठक नहीं है, या हिंदी का पाठक दरिद्र है, उसके पास पैसा नहीं है या उसके पास समय नहीं है, मेरे पाठकों ने इन सब मिथों को झुठलाया है। महासमर लगभग 2000 रुपये कीमत का है। पर लोग खरीदते हैे। जो आम आदमी है, कम कमाने वाला है वह भी पैसा जोड कर किताब खरीदता है। डेढ सौ लोगों की सूची है मेरे पास केवल रिसर्च वालों की, और भी होंगे जिनकी सूचना मुझे अक्सर नहीं होती। इतनी बडी संख्या में किसी और लेखक के पास शोध छात्र न होंगे। तो इतनी बडी संख्या में शोध हो रहा है, किताबें छप रही हैं, इसका अर्थ है कि पाठक हैं और खूब हैं बस हमारे भीतर पाठकों की वेवलेंथ को समझने की साम‌र्थ्य नहीं है। शायद समझना ही नहीं चाहते।

अक्सर आपने ऐतिहासिक मिथकीय आख्यानों को ही अपने उपन्यासों की विषयवस्तु बनाया है। ऐसे आख्यानों में कल्पना की उडान और यथार्थवादी समझ की अपनी सीमा होती है। आपने कथ्य और कल्पना की सीमाबद्धता को किस हद तक तोडा है?

इसमें देखने की बात यह होती है कि कहां कितना अवकाश है। जैसे राम वन में हैं। 14 साल जिन लोगों के बीच रहे, वहां तमाम राक्षसों को मारा। लेखक का मन सोचता है आखिर, राक्षस कितने प्रकार के होते होंगे। धनबल सत्ताबल वाले भी राक्षस हैं और वे आज भी तो हैं। आज के अखबार के चार पेज राक्षसी वृत्तियों पर ही तो होते हैं। विवेकानंद जी की जीवनी तो प्रामाणिक ही है, सब रिकार्डेड है। यहां बहुत कल्पना कर नहींसकते। मैने लिखा है कि वे जब बच्चे थे तो बडे शरारती थे तो शिकायत आई कि यह सब कहां से लिख मारा? ये उपन्यास है, ये कल्पना है। मैने जीवनी दिखा दी। तो कथ्य तो हो सारा उसी में से। बस जीवनी और उपन्यास के अंतर को समझना होता है। कल्पना यही कर सकता हूं बाहर जो हो रहा है, उस समय उनके मन में क्या घटित हो रहा है। उन दोनों को जोडना होता है। इसमें वैपरीत्य नहीं होना चाहिए। कथानक में अवकाश हो तो रचनात्मकता या सृजनात्मकता कल्पना का काम करती है। आलोचकों ने कहा कि विवेकानंद से लेखक का अपूर्व तादात्म्य है। तथ्य और सर्जना का औचित्यपूर्ण संगम हो तो मणिकांचन संयोग होता है।

जी-1/506 ए, उत्तम नगर

नई दिल्ली-110059


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