हर मां अपनी राह खुद बनाने की प्रेरणा देती हैं..
अक्सर मां बेटियों को अपनी तरह बनाने का प्रयत्न करती हैं। वे चाहती हैं कि शील, स्वभाव और कॅरियर का चुनाव करने में उनकी अनुकृति बनें, पर अब यह ट्रेंड बदल रहा है। मां की सोच में यह बदलाव सिर्फ बड़े शहरों में ही नहीं, छोटे शहरों में भी दिखता है। वे बेटियों को जरूरत भर
अक्सर मां बेटियों को अपनी तरह बनाने का प्रयत्न करती हैं। वे चाहती हैं कि शील, स्वभाव और कॅरियर का चुनाव करने में उनकी अनुकृति बनें, पर अब यह ट्रेंड बदल रहा है। मां की सोच में यह बदलाव सिर्फ बड़े शहरों में ही नहीं, छोटे शहरों में भी दिखता है। वे बेटियों को जरूरत भर सुरक्षा तो देती हैं, लेकिन उन पर अपनी इच्छाएं और आशाएं कभी नहीं लादतीं। विषम परिस्थितियों से लड़ने का हौसला भले ही वे देती हैं, पर मनमाफिक राह चुनने में कभी बाधा नहीं बनतीं। दरअसल, वे यह जान चुकी हैं कि अपनी अलग पहचान बनाने के लिए बेटियां को खुले आकाश में उड़ने देना होगा। अपना रास्ता खुद चुनने की उन्हें आजादी देनी होगी।
पात्र को गढ़ती है मां
कथाकार मैत्रेयी पुष्पा के तीन बेटियां हैं। उनकी चाहत थी कि उनकी बेटियां आत्मनिर्भर बनें। भले ही मैत्रेयी की रुचि साहित्य में थी, लेकिन उन्होंने अपनी पसंद कभी उन पर नहीं थोपी। यह ख्याल उनके दिमाग में जरूर था कि बेटियां कुछ ऐसा काम करें, जिससे संपूर्ण मानवता का भला हो। वह कहती हैं, 'मां एक कुम्हार की तरह अपने बच्चे को गढ़ती है। उसे सही सांचे में ढालती जरूर है, लेकिन दबाव कभी नहीं बनाती है, क्योंकि पात्र की तरह टूटने-बिखरने की आशंका होती है। सबसे पहले वह अपने आचरण को उदाहरण के रूप में बच्चों के सामने रखती हैं।' मैत्रेयी एक घटना को याद करती हुई कहती हैं, 'मेरी बड़ी बेटी नम्रता उस समय नौ साल की रही होगी। वह कक्षा चार में पढ़ती थी। उसकी किताब में एक अफ्रीकी कहानी थी, जिसका नाम लेंब्रेन का अस्पताल था। इसके नायक डॉ. स्वात्जर के पास अस्पताल खोलने लायक जमीन भी नहीं थी। उन्होंने एक मुर्गीखाने में अस्पताल खोला। मैंने यह कहानी अपनी बेटियों को इतनी बार सुनाई कि उन लोगों के दिमाग में यह कहानी जज्ब हो गई। यह साहित्य ही था, जिसे उन लोगों में मानवता के प्रति रुचि पैदा करने की प्रेरणा दी। लाख आर्थिक तंगियों के बावजूद मेरी तीनों बेटियां डॉक्टर बनीं।'
मैत्रेयी की एक बेटी डॉ. सुजाता कहती हैं, मां ने हमेशा घर में अनुशासन रखा, लेकिन किसी भी खास काम को करने का उन्होंने किसी प्रकार का दबाव नहीं बनाया। वह खुद साहित्यकार थीं, लेकिन कभी हम लोगों को कुछ वैसा करने की सलाह नहीं दी। वह हमेशा हम लोगों से कहा करती थीं कि ऐसा काम करो, जिससे न सिर्फ तुम अपने पैरों पर खड़ी हो सको, बल्कि लोगों की मदद भी कर सको। वह हमें अपने लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित्त होने की सलाह जरूर देती थीं।
मुसीबतों को झेलकर दिया साथ
शूटर अनीसा सैयद की मां हमीदा हाउस वाइफ हैं। अनीसा के पैदा होने से पहले उन्हें चार बेटियां हो चुकी थीं। घर में सभी लोग लड़का पैदा होने की आस लगाए हुए थे। जब अनीसा पैदा हुईं तो सभी लोग हताश और निराश हो गए। सिर्फ हमीदा ही थीं, जिन्होंने अनीसा को अपने सीने से लगाया और अपनी पूरी ममता उनके ऊपर लुटा दी। अनीसा जब बहुत छोटी थीं, तब वे हमेशा कहा करती थीं कि ये अम्मी और अब्बा का नाम रोशन करेगी। वह अनीसा को अपनी तरह हाउस वाइफ नहीं, आत्मनिर्भर बनाना चाहती थीं। उनकी हमेशा यही इच्छा रही कि वे डॉक्टर-इंजीनियर नहीं, बल्कि वे जो बनना चाहें, बनें। मैंने सारी मुसीबतों को हंसते हुए झेला और पांच बेटियों का हर कदम पर साथ दिया। वह कहती हैं कि मैं नहीं चाहती थी कि मेरी बच्चि्यां मेरी तरह कम पढ़े-लिखें। मैंने उन पर किसी तरह का दबाव भी नहीं डाला। अनीसा को बचपन से खेलों से लगाव था, इसलिए मैंने उसे इस क्षेत्र की ओर बढ़ने की प्रेरणा दी।' स्कूल में स्पोर्ट्स और कल्चरल प्रोग्राम में भाग लेने के लिए मैं सभी बेटियों को प्रोत्साहित करती। नतीजतन, अनीसा अकेले 12-14 अवार्ड जीतती। जब भी वे जीततीं, मेरी आंखों में खुशी के आंसू छलक आते। घर में कई चीजें निषिद्ध थीं। बच्चों की दादी नहीं चाहती थीं कि अनीसा शूटर बने। मैंने ही पति और सास को मनाया। ट्रेनिंग के सिलसिले में जब अनीसा देर रात घर लौटती तो मैं सब लोगों को मनाती। अनीसा कहती हैं वह सिर्फ दसवीं पास थीं, लेकिन सभी बहनों को जब भी किसी चीज के बारे में जानकारी लेनी होती तो उनका जवाब हाजिर होता। अनीसा कहती हैं, 'अम्मी मेरी सबसे अच्छी दोस्त हैं, तभी तो मैं उनसे हर बात शेयर करती हूं। एक घटना मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं जब तैरने से मना करती तो वे खुद पानी में उतरकर तैरने लगतीं और कहतीं कि देखो यह कितना आसान है। वह दुनिया की सबसे अच्छी अम्मी हैं। तुम्हारा साथ हमेशा बना रहे, यही दुआ है मेरी।'
कॉन्फिडेंस की खातिर
एक डॉक्टर मां हमेशा चाहती है कि उसकी बेटी भी डॉक्टर बने, क्योंकि इस पेशे में इज्जत और शोहरत दोनों है। नोएडा की डॉ. इंदुज्योति कुमार एक डॉक्टर हैं, लेकिन बेटी ईशा जे. कुमार की दिलचस्पी किसी और फील्ड में थी। वह लॉयर बनना चाहती थी। तब डॉ. इंदुज्योति ने बेटी की इच्छा को सपोर्ट करने का फैसला लिया। वह कहती हैं, 'अगर वह मेरे या परिवार के दबाव में मेडिकल की पढ़ाई कर भी लेती तो जरूरी नहीं कि अच्छी डॉक्टर बन जाती! दबाव देने से व्यक्ति कॉन्फिडेंस लूज करता है और सफलता भी हासिल नहीं कर पाता है। अब वह न सिर्फ कॉन्फिडेंट है, बल्कि निडर भी है। अपनी जिंदगी खुद संवार रही है।' उन्हें अपनी बेटी पर नाज है। खासकर जब परिवार में बेटी की तारीफ होती है तो उन्हें एक अंतरंग संतुष्टि मिलती है।
ईशा जे. कुमार कहती हैं कि मेरी मां चाहती हैं कि मेरी स्वतंत्र पहचान हो। वह यह अच्छी तरह जानती हैं कि उन्होंने जो कुछ हासिल किया है, उसके लिए उन्हें कितना संघर्ष करना पड़ा है। इसलिए मैं जो भी करती हूं, उसमें उनका पूरा सहयोग होता है। फिर वह निजी मसला हो या प्रोफेशन से जुड़ा कोई मुद्दा, वह अपने डिसीजन खुद लेने के लिए मोटिवेट करती हैं। उनसे जो उम्मीद होती है, उससे कई गुना ज्यादा वह मुझे दे देती हैं। जब मैं छोटी थी तो पढ़ाई में मदद करती थीं। बड़ी हुई तो वह मेरी दोस्त बन गईं।
प्यार के साथ अनुशासन
रांची में मां प्रेमा सिन्हा अपनी तीनों बेटियों की उपलब्धि पर फूली नहीं समाती हैं। उनकी बड़ी बेटी शालिनी एचसीएल नोएडा में कार्यरत हैं, दूसरी बेटी सांवली सिन्हा रांची में एक मोबाइल कंपनी में प्रोडक्ट मैनेजर हैं। वहीं सबसे छोटी बेटी स्वास्ति मैनेजमेंट की पढ़ाई कर रही हैं। वह कहती हैं कि मैंने अपने बच्चों पर हमेशा विश्वास किया और बच्चे भी मेरे भरोसे पर खरे उतरे। हमारे समय में जॉब करने की आजादी नहीं थी, नतीजतन हमने काफी संघर्ष किया। छोटी सी छोटी जरूरत के लिए पति और परिवार पर निर्भर रहना पड़ता था, इसलिए अपनी कमियों और कमजोरियों को हमने बच्चों की ताकत बनाई। मैंने बच्चों को पढ़ने की भरपूर आजादी दी, लेकिन कभी कुछ उन पर थोपा नहीं। साथ ही सुरक्षा के लिए सजग भी रही। प्यार के साथ अनुशासन भी सिखाया। जरूरत पड़ने पर डांट भी लगाई। किसी प्रकार की कड़ाई नहीं होने के बावजूद तीनों ने अपनी रुचि के क्षेत्र में जगह बनाई। बेटी सांवली कहती हैं, मां के कुछ अधूरे सपने थे, जिन्हें हम लोगों को पूरा करना था। वह हमेशा कहा करती थीं कि फूल की तरह अपने काम से खुश्बू बिखेरो। उनकी यही बात हम लोगों के लिए प्रेरणास्रोत थी। हम तीनों बहनों की राह में बहुत बाधाएं आई, पर हम लोगों ने उन पर विजय प्राप्त की।
प्रेरणादायी बातें
टीवी आर्टिस्ट निरुपमा गुप्ता कहती हैं कि मेरी बेटी चाइल्ड आर्टिस्ट के रूप में भी काम कर चुकी है। जब वह बड़ी हुई तो उसने ग्रेजुएशन करने के बाद टीचर बनने का फैसला लिया। दरअसल, उसमें बचपन से ही टीचिंग के गुण मौजूद थे। वह अक्सर अपने से चार साल छोटे भाई को पढ़ाने का उपक्रम करती रहती थी। मैंने बच्चों को अपनी पढ़ाई पूरी करने की भले ही सलाह दी, लेकिन किसी चीज के लिए दबाव नहीं बनाया। मेरे पति चाहते थे कि बेटी नेहा बड़ी होकर डॉक्टर बने, लेकिन कभी उस पर प्रेशर नहीं क्रिएट किया।
एपीजे इंटरनेशनल स्कूल में मैथ्स टीचर नेहा शर्मा कहती हैं कि मम्मी ने हमेशा मुझे हर कदम पर सपोर्ट किया। जब भी मैं निराश हो जाती, वह कहतीं कि तुम यह काम जरूर कर लोगी, बस एक बार कोशिश करके देख लो। बस इस एक बात से हमारे अंदर बुझी हुई ऊर्जा जाग जाती और मैं अपना लक्ष्य पाने के लिए बेचैन हो जाती। जब मैंने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली तो मन में यही इच्छा रहती थी कि मैं कोई ऐसी जॉब करूंगी, जिससे समाज के प्रति मेरा उत्तरदायित्व पूरा हो। ऐसे में टीचिंग बेस्ट ऑप्शन लगा। मैंने बीएड की डिग्री ली और टीचर बन गई।
जी लो जिंदगी अपने मन की
लखनऊ की पुष्पा बाजपेयी ने सौम्या के जन्म के बाद से ही यह सपना पाला था कि उनकी बेटी अपनी राह खुद बनाएगी। अपनी संतान को लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर करना कठिन नहीं है, पर यह दुरूह तब हो जाता है, जब मां को पिता की भी जिम्मेदारी निभानी पड़े। पुष्पा के साथ कुछ ऐसा ही हुआ। शादी के तीन साल बाद सौम्या का जन्म हुआ, लेकिन पति को शराब की लत थी। नशे की हालत में वह पुष्पा से मारपीट करते, यहां तक कि उन्हें घर से भी निकाल देते। बेटी पर बुरा प्रभाव न पड़े, इसकी खातिर उन्होंने तलाक देने का निर्णय लिया। हालांकि उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। प्रसंगवश कभी बेटी के पिता का नाम पूछा जाता तो कभी देर रात सौम्या के डांस क्लास और स्टेज कार्यक्रम के बाद लौटने पर आसपास के लोग उस पर उंगली उठाते, पर पुष्पा ने कभी इन बातों की परवाह नहीं की और बेटी को उन्होंने वह सब करने दिया, जो वह चाहती थी। बेटी ने मीडिया में जाने की इच्छा जाहिर की। उन्होंने उसके इस फैसले को सहर्ष स्वीकार किया और आगे बढ़ने में उसकी पूरी मदद की। आज वह एक राष्ट्रीय चैनल में एंकर है। अपनी बेटी के सपने पूरे करने के लिए अपने सपनों और इच्छाओं को उस पर कभी नहीं लादा। (स्मिता)