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अकेलेपन को यूं दूर कर रहे बुजुर्ग, जीवन की हर शाम को बना रहे मस्तानी

बुजुर्गों को अकेलापन घेरने लगता है जो अवसाद में बदल जाता है। वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने सकारात्मक कदम उठाकर जीवन में आशाओं की किरणें बिखेरी हैं।

By Kamlesh BhattEdited By: Published: Tue, 11 Jun 2019 03:15 PM (IST)Updated: Wed, 12 Jun 2019 06:09 PM (IST)
अकेलेपन को यूं दूर कर रहे बुजुर्ग, जीवन की हर शाम को बना रहे मस्तानी
अकेलेपन को यूं दूर कर रहे बुजुर्ग, जीवन की हर शाम को बना रहे मस्तानी

जालंधर। बात शहरीकरण की हो या परिवार के विकास और अपने बेहतर भविष्य की तलाश में घर से दूर जाने की, इसका सीधा असर पड़ता है पीछे रह जाने वाले घर के बुजुर्गों पर। उन्हें अकेलापन घेरने लगता है जो अवसाद में बदल जाता है। वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने सकारात्मक कदम उठाकर जीवन में आशाओं की किरणें बिखेरी हैं। जीवन की शाम खुशियों से भरी हो, वे समाज में इसके उदाहरण बन रहे हैं। वंदना वालिया बाली की रिपोर्ट...

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विश्वभर में हमारा देश पारिवारिक मूल्यों के लिए जाना जाता है। एक तथ्य यह भी है कि बड़ी तेजी से सामाजिक बदलाव आ रहा है और पीढ़ियों से चली आ रही संयुक्त परिवारों की संख्या लगभग खत्म हो रही है। भारत में आज 70 प्रतिशत युवा और 10 प्रतिशत बुजुर्ग हैं। नई दिल्ली की एजवेल संस्था द्वारा 15 हजार लोगों पर किए गए सर्वेक्षण के अनुसार कुल बुजुर्गों में 48 प्रतिशत अकेलेपन का शिकार हैं। इनमें सबसे अधिक संख्या शहरों में रहने वालों की है। यह दशा डिप्रेशन की ओर न बढ़े, इसके लिए हमें आने वाले कल की तैयारी अभी से करनी होगी।

अब शौक पूरे कर रहे हम

लुधियाना के पास दोराहा में स्थित ‘हेवनली पैलेस’ में रहने वाले हरिंदर पाल सिंह (73) बताते हैं कि वे पंजाब एंड सिंध बैंक से बतौर जोनल मैनेजर रिटायर हुए तो सोलन में एक फ्लैट खरीदकर वहां रहने लगे। बेटा मुंबई में और बेटी गुड़गांव में सेटल्ड है। 12 साल सोलन में काटने के बाद छोटी-छोटी दिक्कतें महसूस होने लगीं।

वे कहते हैं, ‘कभी काम वाली बाई नहीं आती तो कभी बाजार से राशन लाना मुश्किल लगता। ऐसे में बच्चों से सलाह कर हमने ‘हेवनली पैलेस’ में रहने का फैसला किया। यहां सामान्य सी कीमत पर हर सुविधा मौजूद है। न खाना बनाने की चिंता और न कपड़ों के रखरखाव की। हमउम्र लोगों का खूब साथ है। यहां एक नया परिवार मिल गया है। पत्नी सतनाम कौर बहुत अच्छी फैब्रिक पेंटिंग करती हैं। अब हम अपनी हॉबी को भी समय देते हैं और बढ़िया जीवन जी रहे हैं।’

जो लोग अपनी रिटायर्ड लाइफ का ऐसा ही आनंद उठाना चाहते हैं, उन्हें वे सुझाव देते हैं कि अपनी जरूरतों को सीमित रखें। ‘सिंपल लिविंग, हाई थिंकिंग’ में विश्वास करें। खासकर वे लोग जिन्हें पेंशन नहीं मिलने वाली, वे भविष्य के लिए योजनाबद्ध तरीके से पैसा जोड़ें।

अकेलेपन का समय नहीं

हरियाणा के पलवल में एक शख्स हैं जिन्हें 83 साल की उम्र में भी आराम नहीं करना बल्कि केवल समाज के लिए काम करना है। ‘एबल चैरिटेबल संस्था’ चलाने वाले स्क्वार्डन लीडर (रिटायर्ड) प्रेम कुमार खुल्लर कहते हैं, ‘स्वयं को व्यस्त रखने से न तो अकेलापन महसूस होता है और न ही कोई नकारात्मक विचार आते हैं। हालांकि मुझे पिछले 45 साल से डायबिटीज है और हार्ट में स्टेंट भी पड़ चुके हैं लेकिन इस उम्र में भी मेरे पास बिल्कुल समय नहीं। बच्चे विदेश में रहते हैं। मुझे बुलाते हैं, लेकिन मेरे पास समय ही नहीं है। हां, पिछले साल कुछ दिन उनके पास बिताकर आया था। उनके पास जाकर उनके व्यस्त शेड्यूल में से अपने लिए उनका समय मांगने से बेहतर है कि मैं समाज के लिए कुछ सकारात्मक करता रहूं। हमारी संस्था गरीब बच्चों को पढ़ाने, जरूरतमंदों का इलाज करवाने आदि का काम करती है और अब जल्द ही एक वृद्धालय बनाने की योजना है। वहां आने वाले लोगों को भी उनकी क्षमतानुसार कुछ न कुछ काम करने के लिए प्रेरित किया जाएगा।’

‘बचपने’ का रखना है ध्यान

‘हम बच्चों के लिए स्कूल से पहले किंडरगार्टन और प्ले स्कूल के बारे में तो सोचते हैं लेकिन पचपन के बाद जो बचपन शुरू होता है उसकी ओर ध्यान नहीं देते।’ यह कहना है मुंबई स्थित ‘सिल्वर इनिंग्स फाउंडेशन’ के संस्थापक शैलेश मिश्रा का। वे कहते हैं, ‘आज के समाज में सबसे बड़ी चुनौती है लोगों का माइंडसेट चेंज करना। लोगों को यह समझाना मुश्किल है कि बुढ़ापा कोई बीमारी नहीं एक अवस्था है, जिसे खुशी से काटना है। हमारी संस्था यह प्रयास करती है कि लोगों को बुढ़ापा कोई बीमारी नहीं बल्कि जीवन का नया दौर लगे। वे लोगों से घुलें-मिलें। कुछ नया सीखें।'

उनका कहना है, 'जीवन की आपा-धापी में जो शौक पीछे छूट गए थे उन्हें अब पूरा करें। हमारी कोशिश रहती है कि हमारे पास आने वालों को उनकी रुचि के अनुसार कुछ सीखने के लिए प्रेरित किया जाए। उन्हें बच्चों के साथ घुलने-मिलने का मौका मिले। कभी स्कूल या कॉलेज के बच्चे इनसे मिलने आते हैं तो कभी ये स्कूलों में जाकर कहानियां सुनाते हैं। बच्चों के जीवन में हमेशा दादा-दादी की कहानियों का महत्व रहा है, जो धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है। इन बुजुर्गों के अनुभवों से हम नई पीढ़ी को कहानियों के माध्यम से कुछ सीख देने की भी कोशिश करते हैं। हमने एक फुटबाल टीम भी बना रखी है, जिसके चैरिटेबल मैच होते हैं। ’

साथी की ज्यादा जरूरत

अहमदाबाद के नाटूभाई पटेल गत 15 साल से बुजुर्गों के लिए जीवनसाथी ढूंढने का काम कर रहे हैं। ‘अनुबंध फाउंडेशन’ संस्था के तत्वावधान में वे विवाह सम्मेलन आयोजित कराते हैं। 70 वर्षीय पटेल अब तक 149 बुजुर्गों की शादियां करवा चुके हैं। इसके लिए उनकी संस्था देशभर में 55 विवाह सम्मेलन करवा चुकी है। उनका कहना है, ‘लोगों की सोच बदलना आसान नहीं है लेकिन नामुमकिन भी नहीं। यदि किसी के पति या पत्नी की मृत्यु हो जाती है या अलगाव हो जाता है, तो क्या उसे उम्र के वे अंतिम साल, जब किसी सहारे की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, किसी नए साथी के साथ हंसी-खुशी गुजारने का हक नहीं है।’

अनुबंध संस्था से विवाह के बंधन में बंधे हैं 58 साल के मुकेश मेहता व 54 साल की भार्गवी। मुकेश कहते हैं, ‘हम दोनों के बच्चे अपने-अपने परिवारों में व्यस्त हैं। मेरी छोटी बेटी और नातिन ने ही मुझे इस शादी के लिए राजी किया। बच्चों की रजामंदी से शादी की है, सभी इससे खुश भी हैं।’

सामाजिक दायरा जरूरी

चंडीगढ़ में ‘दादा-दादी’ संस्था के सचिव जोरावर सिंह बताते हैं कि पिछले कुछ साल में बुजुर्गों में अकेलेपन का भाव कम होने लगा है क्योंकि वे स्मार्टफोन पर एक्टिव हो रहे हैं। वे कहते हैं, ‘हमारी संस्था बुजुर्गों को सामाजिक दायरा बढ़ाने के लिए प्रेरित करती है। इससे वे व्यस्त रहते हैं और अकेलापन भी महसूस नहीं करते। उन्हें सोशल मीडिया की जानकारी दी जाती है जिससे वे एक-दूसरे से संपर्क कर सेल्फ हेल्प ग्रुुप बना सकें। मुंबई में बनाए गए ‘दादा-दादी पार्क’ में बुजुर्गों के मनोरंजन के अलावा उनके हुनर को भी प्रोत्साहित किया जाता है।’

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