29) लाठी भी देती है सुकून
हजारी लाल, होशियारपुर
लाठी चोट नहीं, सुकून देती है। मजबूत इरादे हों तो दर्द ही दवा बन जाती है। क्योंकि कुछ पाने के लिए, कुछ खोना तो पड़ता ही है। फिर, वही आता है समाज के काम। आज जहां सरकारी नौकरी की लालसा में बेरोजगार लाठियां खाते फिर रहे हैं, वहीं समता की लड़ाई में विमला देवी ने सरकारी अध्यापिका की नौकरी कुर्बान कर दी थी। क्योंकि उनकी हर सांस चलती है बराबरी यानी की समता लड़ाई के लिए।
अपने मिशन में उन्होंने कई बार लाठियां खाई हैं और कई बार जेल में रातें बिताई। मगर, इरादे डगमगाए नहीं..। यहां तक कि आवाज बुलंद करने में सरकारी अध्यापिका की नौकरी आड़े आई तो उसे भी कुर्बान कर दिया। क्योंकि उसूलों से समझौता मंजूर नहीं था। जवानी से जारी यह मिशन अंतिम सांसों तक जारी रहेगा।
होशियारपुर के मोहल्ला टिब्बा साहिब की रहने वाली विमला देवी के पति मास्टर हरकंवल सिंह ने भी समता की लड़ाई में लेक्चरर की नौकरी को ठोकर मार दी थी।
दैनिक जागरण के साथ बातचीत में विमला देवी ने बताया कि उनका जन्म टांडा के गांव जाजा निवासी पिता हजारा सिंह के यहां हुआ था। हालांकि शादी के पहले उनमें समता की लड़ाई की भावना नहीं थी, लेकिन वर्ष 1961 में शादी के बाद पति मास्टर हरकंवल सिंह के आदर्श उन्हें खूब भाए। वह समता की लड़ाई लड़ रहे थे। वर्ष 1963 में विमला देवी ने जेबीटी पास की और वर्ष 1967 में उन्हें सरकारी अध्यापिका की नौकरी मिल गई। पति के पदचिन्हों पर चलते हुए विमला देवी ने समता की लड़ाई में बढ़-चढ़कर भाग लेना शुरू किया। वर्ष 1970 में टीचरों के हकों को लेकर उन्होंने विमला ने चंडीगढ़ में 14 दिन तक लगातार मरणव्रत रखा था। इस दौरान उन्हें जबरन जेल भी भेज दिया गया था, लेकिन वह टस से मस नहीं हुई और सरकार का झुकना पड़ा था। यह कोई एक बार नहीं, बल्कि हकों की लड़ाई में विमला देवी ने कई बार लाठियां खाई और जेल में रातें बिताईं। समता की लड़ाई में विमला देवी ने वर्ष 1991 में अध्यापिका की नौकरी से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति इसीलिए ले ली थी, क्योंकि लड़ाई में नौकरी आड़े आती थी। नौकरी को कुर्बान करके विमला देवी हरेक को रोजगार, सभी को सेहत, शिक्षा, रोटी, कपड़ा और मकान की जंग छेड़ रखी है। वह बताती हैं कि उनके पति हरकंवल सिंह ने भी वर्ष 1987 में लेक्चरर से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली थी। वर्तमान में वह स्त्री जनवादी सभा पंजाब की सचिव हैं। वह कहती हैं कि हकों की लड़ाई में लाठियां तो खानी पड़ती हैं, लेकिन इसकी आह में भी न्याय मिलने पर बहुत सुकून मिलता है। समता की लड़ाई में एक बार तो क्या, हजारों बार लाठियां खाने और जेल जाने की परवाह नहीं है। बराबरी की लड़ाई का मिशन अंतिम सांसों तक जारी रहेगा।