सरोजिनी नायडू के लिए बापू थे 'Little Man' तो गांधी के लिए वो थीं 'बुलबुल'
विलक्षण प्रतिभा वाली सरोजिनी नायडू बापू की बहुत इज्जत करती थीं। उनके विचारों से ही प्रभावित होकर वह भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बनी थीं।
नई दिल्ली। सरोजिनी नायडू का जिक्र आते ही एक ऐसी महिला की छवि उभरकर सामने आती है जो कई भाषाओं में महारत रखती थी। जिसकी लिखी कविताएं हर तरफ धूम मचाती थीं। जिसकी सुरीली आवाज की वजह से महात्मा गांधी ने उसे 'भारत कोकिला' की उपाधि दी थी। सरोजिनी नायडू की छवि केवल यहां तक ही सीमित नहीं है बल्कि स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर भी उनकी छवि काफी अहम रही थी।
13 फरवरी 1879 को हैदराबाद में बंगाली परिवार में पैदा हुई सरोजिनी को इन सबके साथ देश के किसी राज्य की पहली महिला गवर्नर होने का भी गौरव प्राप्त है। वह अपने आठ भाई बहनों में सबसे बड़ी थीं। उनके भाई हरिंद्रनाथ भी एक कवि थे। इसके अलावा उनकी मां सुंदरी देवी की बंगाली भाषा में कविता लिखती थीं। उनके पिता अघोरनाथ चट्टोपाध्याय एक वैज्ञानिक थे। बहुत कम लोग इस बात को जानते हैं कि सरोजिनी को महात्मा गांधी प्यार से बुलबुल बुलाते थे। 8 अगस्त 1932 को लिखे एक पत्र में गांधी जी ने सरोजिनी को इसी नाम से संबोधित किया था। इस खत में बापू ने खुद को लिटिल मैन (Little Man) लिखा था।
दरअसल, कहीं कहीं पर सरोजिनी ने महात्मा गांधी को मिकी माउस लिटिल मैन लिखा था जिस पर बापू ने कभी कोई एतराज नहीं जताया था। बापू के जीवन पर लिखी गई डोन बायर्न की एक किताब मैन एंड हिज मैसेज के मुताबिक ब्रिटिश मीडिया ने उन्हें ये नाम उनके छोटे कद और बड़े कानों की वजह से दिया था। इसके अलावा इसके पीछे महात्मा गांधी का खान-पान भी था।
सरोजिनी ने 12 वर्ष की की आयु में 10वीं की क्लास में टॉप किया था। उनकी विलक्षण प्रतिभा को देखते हुए ही उन्हें हैदराबाद के निजाम कॉलेज में एडमिशन मिला। इसके बाद यहां से हैदराबाद के निजाम ने उन्हें अपने खर्च पर पढ़ाई के लिए लंदन के किंग्स कॉलेज भेजा था। इसके बाद उन्हें कैम्ब्रिज के गिरटन कॉलेज में अध्ययन करने का मौका मिला। हालांकि कविता लिखने का उनका शौक न तो कभी खत्म हुआ और न ही कभी कम हुआ।गोल्डन थ्रैशोल्ड उनका पहला कविता संग्रह था। उनके दूसरे तथा तीसरे कविता संग्रह बर्ड ऑफ टाइम तथा ब्रोकन विंग ने उन्हें एक सुप्रसिद्ध कवयित्री बना दिया।
यहां पर ही उनकी मुलाकात डॉक्टर पीजी नायडू से हुई। उनकी शादी इंटरकास्ट थी। यह उस समय की बात है जब इस तरह का सोचना भी पाप माना जाता था। लेकिन सरोजिनी ने आगे बढ़ने का फैसला लिया और शादी के बाद सरोजिनी नायडू बन गईं। हालांकि उनकी शादी से दोनों ही परिवारों को कोई एतराज नहीं था। उनके पति मूल रूप से आंध्र प्रदेश के थे। 1914 में इंग्लैंड में वह पहली बार गांधीजी से मिलीं और उनके विचारों से प्रभावित होकर वह भी बापू के साथ भारत को आजाद कराने की मुहिम में जुट गईं। उन्होंने बापू के अनेक सत्याग्रहों में भाग लिया और 'भारत छोड़ो' आंदोलन में जेल भी गईं।
सरोजिनी ने भारतीय समाज में फैली सामाजिक को दूर करने के लिए भारत के अलग-अलग राज्यों का दौरा किया महिलाओं को जागृत किया। वो काफी समय तक वे कांग्रेस की प्रवक्ता भी रहीं। 1925 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन की प्रथम भारतीय महिला अध्यक्ष बनीं। उन्हें वर्ष 1908 में उन्हें अंग्रेजों ने 'कैसर-ए-हिन्द' के सम्मान से नवाजा था, लेकिन जलियांवाला बाग हत्याकांड से क्षुब्ध होकर उन्होंने इस सम्मान को वापस कर दिया था।
आजाद भारत में जब उन्हें पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उत्तर प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया तो वह उनका कहा टाल नहीं सकीं। हालांकि इसके बावजूद उन्होंने ये जरूर कहा कि वह खुद को एक कैद किए गए पक्षी की तरह महसूस कर रही हैं। 2 मार्च 1949 को उनका देहांत हो गया था।
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