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हमारा प्रतिबिंब हैं बच्चे

बच्चों को बिना दोषी महसूस कराए माता-पिता को उनकी गलती बताने की कला सीखनी चाहिए। बच्चों के मन से तिरस्कार के भय को हटाकर उन्हें अपनी गलती स्वीकारने की हिम्मत दिलाने की जरूरत है। श्रीश्री रविशंकर के विचार

By Edited By: Published: Tue, 28 Feb 2012 07:20 PM (IST)Updated: Tue, 28 Feb 2012 07:20 PM (IST)
हमारा प्रतिबिंब हैं बच्चे

बच्चों को बिना दोषी महसूस कराए माता-पिता को उनकी गलती बताने की कला सीखनी चाहिए। बच्चों के मन से तिरस्कार के भय को हटाकर उन्हें अपनी गलती स्वीकारने की हिम्मत दिलाने की जरूरत है। श्रीश्री रविशंकर के विचार

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एक कहावत है कि बालक अपने माता-पिता की विरासत को साथ लेकर चलता है। सिर्फ आर्थिक विरासत को ही नहीं, बल्कि उनके चरित्र और आचरण को भी।

बालक अपने सीखने की शुरुआत माता-पिता की नकल करके करता है। सामान्य रूप से बच्चों की नजर बड़ी तेज होती है। वे हर क्षण सब कुछ ध्यान से देख रहे होते हैं। मां-बाप जब गुस्सा होते हैं, झूठ बोलते हैं या किसी का मजाक बना रहे होते हैं, उस समय बच्चे उसे आत्मसात कर लेते हैं। माता-पिता इस सच्चाई से बेखबर होते हैं कि बच्चे हर पल उन्हें परख रहे हैं। इसलिए माता-पिता का सहज रहना बहुत जरूरी है, क्योंकि माता-पिता का तनाव या आनंद, उनका चरित्र और मानसिकता बालक में स्थानांतरित हो रही होती है। अगर माता-पिता हिंसक हैं, तो बालक भी आमतौर पर हिंसक बनेगा। अगर वे भक्तिमय हैं या ऐसा होने का ढोंग भी करते हैं, तो भी बालक में भक्ति का बीज अंकुरित होगा।

माता-पिता के लिए सबसे बड़ी चुनौती है कि बच्चे हीनभावना या अहंकार से ग्रसित न हो जाएं। कई परिवारों में माता-पिता बच्चों को गलत बात के लिए कभी डांटते नहीं। इससे बच्चे कमजोर बन जाते हैं। दूसरी तरफ, कई लोग बच्चे को टोकते रहते हैं। इससे बच्चे या तो बहुत भयभीत रहते हैं या विद्रोही बन जाते हैं।

सबसे अच्छा तरीका यह है कि बच्चे को बिना दोषी महसूस कराए हुए माता-पिता उनकी गलती बताने की कला सीख जाएं। बच्चों के मन से तिरस्कार के भय को हटाकर उन्हें अपनी गलती स्वीकारने की हिम्मत दिलाने की जरूरत है। संस्कृत में कहावत है कि जब आपकी संतान 16 साल की हो जाए, तो उनके साथ मित्रवत व्यवहार करें। उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं, यह मत कहिए। उनसे बस उनकी मुश्किलों के बारे में सुनिए। तब वे आपसे खुलकर बात करेंगे।

आज लोगों में जाति, धर्म, व्यवसाय और कई सारी चीजों के प्रति पूर्वाग्रह है। यह आवश्यक है कि बच्चों को इतना खुलापन मिले, ताकि वे अपनी दृष्टि विशाल रख सकें और जड़ें मजबूत। जिन बच्चों को नैतिक और धार्मिक मूल्य नहीं सिखाए जाते, वे बड़े होकर जड़ से उखड़े हुए वृक्ष जैसे हो जाते हैं। इसीलिए माता-पिता को सुनिश्चित करना है कि जब तक बालक की शाखाएं फैलने लगें, तब तक उनकी जड़ें मजबूत हो जाएं। बालक को बुद्धिमान और निष्पक्ष बनाने के लिए उसकी सांस्कृतिक और अध्यात्मिक नींव मजबूत होना जरूरी है।

यह अत्यंत जरूरी है कि बच्चे बहु-सांस्कृतिक, बहु-धार्मिक शिक्षा प्राप्त करें। दुनिया में कट्टरपन और धार्मिक आतंकवाद को रोकने के लिए यह आवश्यक है। अगर बालक अन्य सभी धमरें, संस्कृतियों और रीति-रिवाजों के बारे में थोड़ा-बहुत सीखता हुआ बड़ा हो, तो सबके साथ उसका भाईचारा बना रहेगा। अगर बच्चा हरेक धर्म के बारे में जान ले, तो उसे दूसरे धमरें के प्रति नफरत नहीं होगी। माता-पिता को अपने बच्चों को भविष्य में एक बेहतर इंसान बनाने का प्रयत्न अभी से करना चाहिए।

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