वो पानी देख रहे हैं, मैं आस्था
जलजांच व जलांजलि दो विपरीत विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करने वाले गूढ़ार्थ शब्द हैं मगर इनका संगम भी यदि कहीं एक साथ हो जाए तो चित्र का कैनवॉस बड़ा हो जाता है। कुंभनगरी में नदियों के गोचर संगम से इतर कुछ अगोचर संगम भी संग-साथ कदमताल करते मिलेंगे।
कुंभनगर। जलजांच व जलांजलि दो विपरीत विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करने वाले गूढ़ार्थ शब्द हैं मगर इनका संगम भी यदि कहीं एक साथ हो जाए तो चित्र का कैनवॉस बड़ा हो जाता है। कुंभनगरी में नदियों के गोचर संगम से इतर कुछ अगोचर संगम भी संग-साथ कदमताल करते मिलेंगे। सुदामा देवी, यह नाम है उस महिला का जो सुदूर हल्दिया जिले से यहां आई हैं कुछ निवेश करने। निवेश गंगा स्नान कर पुण्य कमाने का .जो मान्यताओं के अनुसार उन्हें मोक्ष का भागी बना सकता है। गुरुवार की अल सुबह गंगा की एक छमकनाली में खड़ी साठ वर्षीय सुदामा के लिए नदी का वह भाग मानसरोवर से कम तो कतई नहीं। पानी का लाल, काला या पीला होना उनके लिए कोई मायने नहीं रखता। जल के साथ आता कचड़ा उन्हें बिल्कुल विचलित नहीं करता।
.मगर ऐन यहीं दूसरा दृश्य भी है। फतेहपुर के पैंतीस वर्षीय सिविल इंजीनियर राकेश कुमार घुटनों तक पानी में खड़े होकर उसका रंग देख रहे हैं, गुणवत्ता परखने की यथासंभव कोशिश कर रहे हैं। डुबकी और राकेश के बीच का अंतदुवन्द्व साफ झलक रहा है। वहीं अब तक पांच डुबकी लगा चुकी पड़ोसी स्नानार्थी सुदामा की आंखें बंद हैं और अब वह भगवान भाष्कर को जलांजलि देने के बाद हथेली में जल लेकर उसका आचमन कर रही हैं। एक, दो, तीन नहीं पूरे इक्कीस बार। राकेश कभी पानी देखते हैं तो कभी सुदामा को। मैं दोनों को देख रहा हूं। सुदामा के चेहरे पर गंगा की आभा है, उसकी इक्कीस हथेली में इक्कीस अमृत कुंभ को मैंने साफ उसके कंठ से उतरते देखा। सुदामा की आस्था अपनी हद पार कर चुकी है जो वस्तुत: है ही अनंत, वहीं राकेश भी अब एक डुबकी लगाकर नमो-नमो करते बाहर आ गए हैं। गंगा यूं ही बह रही हैं, चंद कदमों पर संगम यूं ही हो रहा है, सूर्य वैसे ही मुस्कुरा रहे हैं और रेत को छूकर हवा वैसे ही गुजर रही है जैसा पहले कुंभ के भी पहले रहा होगा। बस पात्र बदल गए हैं और बदल गई हैं स्थितियां। मगर बदले हुए भावों के साथ ही सही, आस्था दोनों ही तरफ है, इस आस्था की अविरलता के लिए आमीन।
आगे बढ़ता हूं- नगालैंड की सरकारी चिकित्सक सुचित्रा गोमुन अपने दो बच्चों के साथ रेत में पानी मिलाकर पार्थिव शिवलिंग बना रही हैं। यह क्यों, मैंने पूछा। .क्योंकि मां भी बनाती थी उन्होंने बताया। डॉक्टर गोमुन का यह एक वाक्य आगे किसी व्याख्या की मांग नहीं करता, यह वाक्य अपने आप में मानो संपूर्ण भारत बन जाता है। .क्योंकि मां भी बनाती थी, यह वाक्य हमें परंपरा बता जाता है, संस्कार सिखा जाता है, आस्था जता जाता है और राह-ए-श्रद्धा दिखा जाता है। गोमुन ने अपनी मां को जो-जैसा करते देखा, आज वो-वैसा अपने बच्चों के साथ खुद कर रही हैं। कल वही बच्चे बड़े होकर अपने बच्चों के साथ संगम की रेती पर पार्थिव शिवलिंग बना रहे होंगे। गौरवशाली भारतीय धर्म इतिहास के साथ पीढि़यां ऐसे ही कदमताल कर रही हैं, करती रहें, इसके लिए आमीन।
कुछ पहले-बुधवार की रात, उत्तर प्रदेश के सर्वोच्च प्रशासनिक मुखिया अपने लाव लश्कर के साथ जूना अखाड़ा में प्रवेश करते हैं। आइएएस-आइपीएस व अन्य अफसरों की फौज उनके आगे बिछी जा रही है, बिल्कुल तभी किशोरवय एक संन्यासी उनके सामने आकर खड़ा हो जाता है। सरकार कमर तक झुकते हैं, दोनों हथेलियां जुड़कर माथे तक पहुंच जाती हैं। यहां वार्तालाप गौण और दृश्य ही प्रधान हो जाता है। सरकार के काफिले की लपलपाती बत्तियों की रोशनी किसी थिएटर का आभास करा रही हैं मानो कोई नाटक सा चल रहा हो। अखाड़ा में मौजूद तमाम आम जन इस क्षण के मूक गवाह बनते हैं। संगम की रेती पर धर्मसत्ता के आगे झुकी राजसत्ता, सनातन भारतीय परंपरा की तमाम अनकही दास्तानों की एक और कड़ी बन जाती है। परंपरा निर्वहन की यह परंपरा यूं ही निर्बाध रहे, इसके लिए आमीन।
उपसंहार- अमृत योग में जल बीच अमृत की तलाश करते एक नौजवान को रेती पर एक साधु ने लघु कथा सुनाई- पुरानी बात है, एक गांव में कई बरस तक अकाल पड़ा। अंतत: यह तय हुआ कि सभी ग्रामवासी कल सुबह एक जगह एकत्र होकर भगवान से वर्षा के लिए प्रार्थना करेंगे। तय समय और तय स्थान पर सैकड़ों ग्रामवासी वर्षा के लिए प्रार्थना करने जुट तो गए मगर छाता लेकर पहुंचा था बस एक बालक। साधु ने नौजवान की जिज्ञासा शांत की-विश्वास करना सीखो, जल की हर बूंद अमृत ही है। उन गांववासियों की तरह वर्षा के लिए सिर्फ प्रार्थना करने न पहुंचो। यह विश्वास पैदा करना होगा कि प्रार्थना कर रहा हूं तो पानी भी बरसेगा ही।
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