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अद्भूत और निराली, मां बावे वाली

एक वक्त था जब रणभूमि के लिए निकलने से पहले जम्मू की सेनाएं मां बावे वाली माता के मंदिर में माथा टेका करती थी। आज भी लोग मन्नत पूरी होने पर यहां बकरी की बलि चढ़ाते हैं। पर इस तरह कि बकरी भी जीवित रहे और शुक्राना भी हो जाए।

By Edited By: Published: Mon, 22 Oct 2012 12:33 PM (IST)Updated: Mon, 22 Oct 2012 12:33 PM (IST)
अद्भूत और निराली, मां बावे वाली

जम्मू। एक वक्त था जब रणभूमि के लिए निकलने से पहले जम्मू की सेनाएं मां बावे वाली माता के मंदिर में माथा टेका करती थी। आज भी लोग मन्नत पूरी होने पर यहां बकरी की बलि चढ़ाते हैं। पर इस तरह कि बकरी भी जीवित रहे और शुक्राना भी हो जाए। और खास है यहां की बर्फी -

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सूर्य पुत्री तविषी [तवी] नदी के पुल से गुजरते हुए हर जम्मूवासी का सिर और पलकें एक पल के लिए झुक जाती हैं। यह पुल से गुजरने का भय नहीं, बल्कि सामने से नजर आ रही बावे वाली माता के प्रति श्रद्धा है। उन्हें विश्वास है कि बावे वाली माता हर मुश्किल में उनकी रक्षा करेगी। देवी महाकाली संहार की देवी मानी जाती है, लेकिन जब मानव मात्र के द्वारा उनकी आराधना की जाती है तो वे संहारिका से संरक्षिका की भूमिका में आ जाती हैं। ऐसी ही है जम्मू स्थित मां बावे वाली। तविषी नदी के पूर्वी तट पर जम्मू से तकरीबन दो किलोमीटर की दूरी पर बावे इलाके में स्थित होने के कारण इसे बावे वाली माता कहा जाता है। ठीक वैसे ही जैसे गुडग़ांव में गुडग़ांव वाली या करौली में करौली वाली।

यह मंदिर ऐतिहासिक बाहु किले के भीतर स्थित है। जम्मू राज्य के संस्थापक रहे राजा जम्बूलोचन के बड़े भाई बाहुलोचन के नाम पर इस किले का नाम है। मान्यता है कि जम्मू राज्य को अपनी राजधानी बनाने के बाद जब राजा ने देवी की मूर्ति का मुंह अपने नए महल मुबारक मंडी की ओर करना चाहा, तो वे लगातार असफल रहे। अंत में उन्होंने हाथियों की सहायता से देवी शिला को हिलाना चाहा, परंतु जब भी हाथी उस शिला को खींचते तो वे दर्द से चिंघाडऩे लगते। अंत में यह फैसला हुआ कि शक्ति यहीं स्थापित रहेंगी। तब से आज तक शक्तिरूप में यही है जम्मू वासियों की आराध्या।

ऐतिहासिक महत्व-

बाहु किले के भीतर इस मंदिर की स्थापना वर्ष 1822 से बताई जाती है। मंदिर के भीतर स्थापित शिला आदि कालीन है, लेकिन इस मंदिर का निर्माण महाराजा गुलाब सिंह के समय का बताया जाता है। मंदिर उत्तरोत्तर विकास की ओर है। पर्यटकों की सुविधा को देखते हुए अब संपूर्ण ट्रैक पक्का करवा दिया गया है। कई कमरे और नए मंदिर भी मंदिर प्रांगण में बना दिए गए हैं। परंतु विकास की धूल कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को ढक भी रही है।

आध्यात्मिक महत्व-

प्राचीन समय में वैष्णो देवी यात्रा केवल तीर्थ के तौर पर ही की जाती थी और इसका एक विशेष सर्किल होता था। जिसकी शुरूआत नगरोटा स्थित कौल कंडोली मंदिर से होती थी। जबकि अंत यहां बावे वाली माता मंदिर में। वैष्णो देवी में मिलने वाले प्रसाद को जब बावे वाली माता मंदिर के प्रसाद के साथ मिलाया जाता था तभी उसे पूर्ण समझा जाता था। आज भी लोग बच्चों के मुंडन संस्कार और नव विवाहित जोड़ों को आशीर्वाद दिलवाने बावे वाली माता के चरणों में आते हैं।

बलि का निराला अंदाज-

जम्मू-कश्मीर उन प्रगतिशील राज्यों में से है जो सुधारवादी फैसलों में अग्रणी रहा है। देश के अनेक शक्ति स्थलों की तरह यहां भी बलि प्रथा प्रचलित थी। लेकिन जिस बकरी को एक ही घाट पर शेर के साथ पानी पीते देख राजा जम्बूलोचन को अपनी राजधानी बसाने का ख्याल आया, उसी राच्य में बकरी की हत्या कैसे की जा सकती थी। इसलिए यहां बलि का एक अनूठा अंदाज अपनाया गया। बलि के लिए लाई गई बकरी को मंदिर के सामने निर्मित अहाते में बांध दिया जाता है और उस पर पानी के छींटे मारे जाते हैं। बकरी जब कपकंपाकर अपने शरीर के बालों को झटकती है तो मान लिया जाता है कि देवी ने बलि स्वीकार कर ली।

खास है मावे की बर्फी-

बावे वाली माता मंदिर के लिए प्रस्थान करते हुए आप देखेंगे कि दोनों और मावे की बर्फी की ढेरों दुकानें हैं। वास्तव में यही है बावे वाली माता के मंदिर का प्रसाद। मावे की यह बर्फी खुले बाजार में मिलने वाली बर्फी से बिल्कुल अलग है। इसे बनाने वाले भी खास है और बेचने वाले भी। पारंपरिक विधि अपनाते हुए आज भी इसमें सिर्फ मावे और शक्कर का ही इस्तेमाल किया जाता है। मावे की सप्लाई दूर दराज गांवों में रहने वाले गुच्जर करते हैं। इसलिए अभी तक इसकी शुद्धता पर कोई सवाल खड़ा नहीं किया जा सका है।

शनि और मंगल को मेला-

बावे वाली माता मंदिर में दिन भर पर्यटकों और स्थानीय लोगों का तांता लगा रहता है, लेकिन यदि मंगलवार या शनिवार हो तब तो यह रौनक सुबह पांच बजे से ही शुरू हो जाती है। शहर के विभिन्न स्थानों से सुबह पांच बजे ही बावे के लिए मिनी बसें चलनी शुरू हो जाती हैं। इन दोनों दिन मंदिर में खास मेला लगता है। जिसमें झूले, खेल-खिलौने और लंगरों का भी आयोजन होता है। नवरात्र में तो यहां की रौनक देखते ही बनती है।

संपन्न है मिनी बाजार-

माता के मंदिर तक जाने के लिए ड्योढ़ी से लेकर बाहु किले तक लगभग आधा किलोमीटर का पक्का ट्रैक बना हुआ है। जिसके दोनों और छोटी-छोटी दुकानें हैं। इनमें अधिकांश दुकानें प्रसाद की हैं। जबकि हर दस कदम पर आपको मेहंदी वाला और खिलौने वाला भी मिल जाएगा। इसी घुमावदार मिनी बाजार में आप अपनी जरूरत की लगभग हर चीज खरीद सकते हैं। फिर चाहें वे कैमरे के लिए बैटरी सेल हों या फिर गर्म कंबल।

स्वाद के चटखारे-

जम्मू की खास मानी जाने वाली कचालू की चाट यहां भी उपलब्ध है। इसके अलावा कुलचा छोले, कलाड़ी कुलचा, फ्रूट चाट, पूड़ी छोले सहित कई व्यंजनों का स्वाद यहां लिया जा सकता है। माता के दर्शन के बाद ड्योढ़ी से उतरते हुए यदि आप सामने नजर दौड़ाएं तो ढेरों की संख्या में आपको छोटे-छोटे खोंमचे और रेहड़ी वाले नजर आ जाएंगें। जिनके पास बर्गर, आइसक्त्रीम से लेकर गोल गप्पे तक का स्वाद मौजूद है।

गुजर जाएगा पूरा दिन-

माता के दर्शन के बाद आप यहीं मुगल गार्डन और फिश एक्वेरियम का भी आनंद उठा सकते हैं। माता की ड्योढ़ी से नीचे उतरकर थोड़ी सी दूरी पर बाग-ए-बाहु मौजूद है। यहां आप सीढ़ीनूमा बाग, झरने और फव्वारों का भी आनंद ले सकते हैं। आपकी यादों को कैमरे में कैद करने के लिए फोटोग्राफर खुद आपको ढूंढ लेंगे। वहीं बाग के बिल्कुल साथ में उत्तर भारत का एकमात्र अंडरग्राउंड फिश एक्वेरियम है। जहां चॉकलेटी से लेकर सुनहरे तक अलग-अलग रंगों की दर्जनों प्रजाति की मछलियां देखी जा सकती हैं।

पहुंचना है आसान-

बावे वाली माता मंदिर पहुंचने के लिए आपको शहर के किसी भी कोने से आराम से मिनी बस मिल जाएगी। शहर के किसी भी कोने से मंदिर पहुंचने के लिए एक व्यक्ति को मिनी बस में दस रुपये से अधिक नहीं खर्चने पड़ेंगे। लेकिन यदि आप मिनी बस की भीड़ में नहीं फंसना चाहते तो ऑटो रिक्शा और टैक्सी के माध्यम से भी यहां पहुंचा जा सकता है।

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