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लोकनायक श्रीराम

नव का जीवन तभी उन्नत बन सकता है, जब उसके सामने कोई आदर्श हो। बिना आदर्श के बिरले ही ऊंचा स्थान बना सके हैं। दृढ़-निश्चय, कर्मण्यता और आदर्श- ये तीनों मिलकर पुरुष को पुरुषोत्तम बना सकते है, किंतु आदर्श के बिना दृढ़-संकल्प और कर्मण्यता की शक्ति दिशाहीन हो जाती है।

By Edited By: Published: Wed, 28 Mar 2012 02:44 PM (IST)Updated: Wed, 28 Mar 2012 02:44 PM (IST)
लोकनायक श्रीराम

नव का जीवन तभी उन्नत बन सकता है, जब उसके सामने कोई आदर्श हो। बिना आदर्श के बिरले ही ऊंचा स्थान बना सके हैं। दृढ़-निश्चय, कर्मण्यता और आदर्श- ये तीनों मिलकर पुरुष को पुरुषोत्तम बना सकते है, किंतु आदर्श के बिना दृढ़-संकल्प और कर्मण्यता की शक्ति दिशाहीन हो जाती है।

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आदर्श के रूप में हम उसी व्यक्तित्व को चुनना चाहते है, जिसमें सभी सद्गुण हों। जिसने सदा धर्म का पालन किया हो। तब हमारे हृदय में सहसा मर्यादा-पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्रजी की छवि ही उभरती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि श्रीराम तो स्वयं साक्षात् धर्म का ही प्रतिरूप है। वाल्मीकि रामायण में लिखा है- रामो विग्रहवान् धर्म: अर्थात श्रीराम धर्म का मूर्तिमान स्वरूप है। महर्षि वाल्मीकि ऐसा लिखने के लिए विवश इसलिए हुए, क्योंकि भगवान ने जो उपदेश दिए, उन्हे श्रीरामावतार में उन्होंने प्रत्यक्ष जीकर दिखाया।

आजकल लोग धर्म के मूल अर्थ को भूल गए है। अधिकांश लोग धर्म को मात्र कर्मकांड समझने लगे है। यह भारी भूल है। धर्म का प्रथम संदेश है- सदैव मर्यादा का पालन करो। पर हम निज स्वार्थ और अहंकार में मर्यादाओं का खूब उल्लंघन करते है। जबकि मर्यादा-पालन के बिना धर्म की बात करना ही अर्थहीन है। आज व्यक्ति और समाज के सामने जो समस्याएं उत्पन्न हो रही है, उन सबका मूल कारण यही है कि हम मर्यादा का पालन नहीं कर रहे है। इसी कारण अशांति, अराजकता और भ्रष्टाचार का सर्वत्र तांडव हो रहा है।

जबकि श्रीराम ने सर्वशक्तिसंपन्न और सर्वगुणनिधान होते हुए भी मर्यादा-धर्म का सदा पालन किया। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी उन्होंने मर्यादा नहीं छोड़ी। ऐसा विलक्षण उदाहरण अन्यत्र कहीं और नहीं मिलता। यही वजह है कि उन्हे मर्यादा-पुरुषोत्तम कहा जाता है।

श्रीरामावतार की प्रत्येक लीला अनुकरणीय है। बाल्यकाल से ही श्रीराम ने अपने भाइयों के प्रति आदर्श व्यवहार बनाए रखा। सदैव पहले उनका हित सोचा। श्रीराम ने गुरुकुल में सामान्य छात्र के रूप में शिक्षा ली तथा गुरु को सेवा से सदा संतुष्ट रखा। उन्होंने राजकुमार होने की विशिष्ट सुविधा या छूट नहीं ली। गुरु के आदेश का शब्दश: पालन किया। राजतिलक होने से पूर्व वन-गमन का संकेत मिलते ही तत्क्षण सत्त को छोड़ने के लिए प्रस्तुत हो गए। पिता को वचन-भंग के धर्मसंकट में नहीं डाला। यद्यपि अयोध्या की जनता उनकी राजगद्दी के लिए उतावली थी, पर उन्होंने अपनी लोकप्रियता और जनादेश की अनदेखी करके पिता के वचन का मान रखा। चित्रकूट में राजकीय वैभव से दूर ऋषि जैसा जीवन जिया। सीता-हरण हो जाने के पश्चात् जब भारी संकट गहराया, तब वे महाबलशाली बाली की मदद से उसका तत्काल समाधान पा सकते थे, पर श्रीराम ने किसी मदांध दुराचारी की सहायता लेना स्वीकार नहीं किया।

लोकनायक के चरित्र की हर किरण लोक-जीवन को प्रभावित और प्रेरित करती है। बलवान और समर्थ, किंतु स्वेच्छाचारी अन्यायी का दमन करना तथा सदाचारी दीन का पक्ष लेना ही श्रेष्ठ पुरुष का क‌र्त्तव्य होता है। इसी कारण श्रीराम ने बलवान किंतु अन्यायी-अधर्मी बाली को छोड़कर दीन-हीन सुग्रीव को अपना मित्र बनाया। वध करने से पूर्व रावण को सीताजी वापस लौटाने का अवसर दिया। अंगद को लंका में भेजा। पर रावण ने श्रीराम की सज्जानता को उनकी कमजोरी समझकर प्रस्ताव ठुकरा दिया। फिर रावण का वध करके पत्‍‌नी को उसकी कैद से छुड़ाना अनिवार्य हो गया। रावण की मृत देह के संस्कार में उसके भाई विभीषण लज्जावश रुचि नहीं दिखा पा रहे थे। तब श्रीरामचंद्र जी ने उन्हे समझाते हुए कहा- वैर-विरोध मृत्यु तक ही हुआ करते है, तुम भाई के शव का शास्त्रोचित संस्कार करो।

हारे हुए को अपमानित करना श्रीराम की राजनीति में नहीं था। उनके हृदय की विशालता तब चरम पर पहुंच जाती है, जब चौदह वर्ष का वनवास भोगने के बाद सीता सहित अयोध्या पहुंचने पर उन्होंने सौतेली माता कैकेयी को पूरा आदर दिया। कोई गिला-शिकवा नहीं किया। वे राजगद्दी पर बैठने पर सहायकों सुग्रीव, हनुमान आदि के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना नहीं भूले। आजकल अक्सर राजनेता सत्त मिलते ही जनता को भूल जाते है, पर श्रीराम राजा बनने के बाद अपनी प्रजा के सुख-दुख को जानने के लिए व्याकुल रहते थे। रामराज्य के राजतंत्र में जनवाणी की उपेक्षा नहीं होती थी। धोबी द्वारा आरोप लगाये जाने पर प्रिय पत्‍‌नी सीता को त्यागने का निर्णय सिर्फ राजा राम ही ले सकते थे। आज सत्तरूढ़ जनप्रतिनिधि पद ग्रहण करते ही जनभावना के प्रति उदासीन हो जाते है। श्रीराम में हमें आदर्श लोकनायक के सभी गुण दिखाई पड़ते है। इसीलिए वे जन-जन के आराध्य बन गए है।

श्रीराम की जयंती के दिन उनके चरित्र का अनुकरण करने का संकल्प लेना चाहिए। उनके समान आदर्श पुरुष, राजा, भाई, पुत्र, शिष्य, योद्धा, तपस्वी, दृढ़-प्रतिज्ञ और संयमी कौन हुआ है? रामावतार का मूल उद्देश्य ही था मर्यादित जीवन का आदर्श बताना। यदि जनता के साथ-साथ राजनेता और अधिकारी भी श्रीराम के आदर्शो को अपनाएंगे, तो भारत में राम-राज्य पुन: लौट आएगा और तब लोकनायक के देश में लोकपाल की भी आवश्यकता नहीं रहेगी।

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