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ऐसी वाणी बोलिए..

वाणी पर नियंत्रण रखकर आप सफलता की बुलंदियां छू सकते हैं। अध्यात्म में वाचिक तप को बहुत महत्व दिया गया है..

By Edited By: Published: Tue, 10 Apr 2012 05:15 PM (IST)Updated: Tue, 10 Apr 2012 05:15 PM (IST)
ऐसी वाणी बोलिए..

जामिन फ्रैंकलिन ने अपनी सफलता का कारण बताते हुए कहा था, मैंने तय किया है कि किसी भी व्यक्ति के बारे में बुरा नहीं बोलूंगा और जितना भी बोलूंगा, वह उस व्यक्ति की अच्छाइयों के बारे में ही होगा। वाणी के इसी संयम को अध्यात्म में वाचिक तप कहा जाता है अर्थात अपनी वाणी पर कठोर वचनों को न आने देने का प्रयास। श्रीमद्भगवद्गीता में तीन प्रकार के तप गिनाए गए हैं- शारीरिक तप, वाचिक तप और मानसिक तप। वाचिक तप के बारे में उल्लेख है, उद्वेग उत्पन्न न करने वाला वाक्य बोलना, प्रिय, हितकारक और सत्य वचन बोलना और स्वाध्याय करना वाणी का तप कहलाता है।

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हमारे जीवन में वाणी के महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसको वश में करने से व्यक्ति बहुत ऊंचा उठता है। इसके विपरीत अनियंत्रित वाणी वाले व्यक्ति को अमूमन जीवन में सफलता नहीं मिल पाती। जब व्यक्ति अपनी वाणी से किसी को ठेस नहीं लगाता और सदैव मीठा बोलता है, उसके इष्ट-मित्रों का दायरा अधिक होता है और लोगों के सहयोग व समर्थन के कारण वह अधिक शक्तिशाली बनकर उभरता है। इसके विपरीत कटु वचन बोलने वाला जीवन में अकेला पड़ता चला जाता है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य के लिए वाचिक तप का अत्यंत महत्व है।

गीता में कर्म के तीन साधन बताए गए हैं, जिनमें एक साधन वाणी भी है। ऋग्वेद के एक मंत्र (10/71/2) का आशय है कि जिस प्रकार छलनी में छानकर सत्तू को साफ करते हैं, वैसे ही जो लोग मन, बुद्धि अथवा ज्ञान की छलनी से छान कर वाणी का प्रयोग करते हैं, वे हित की बातों को समझते हैं अथवा शब्द और अर्थ के संबंध ज्ञान को जानते हैं। जो बुद्धि से शुद्ध कर के वचन बोलते हैं, वे अपने हित को भी समझते हैं और जिस को बात बता रहे हैं, उसके हित को भी समझते हैं। सोच-समझकर शब्दों का उच्चारण या बोलने में ही, कहने और सुनने वाले का हित-भाव छिपा हुआ है। वाणी में आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के ऐश्वर्य निहित रहते हैं।

मधुरता से कही गई बात हर प्रकार से कल्याणकारी होती है। परंतु वही बात कठोर व कटु शब्दों में बोली जाए, तो एक बड़े अनर्थ का कारण बन जाती है। आज के समय में, जब कठोर वाणी के कारण रोड रेज जैसे अनेक अपराध बढ़ रहे हैं, ऐसे समय में वाणी का संयम बहुत ही जरूरी है। आज के आपाधापी के समय में यदि हम सदा मधुर, सार्थक और चमत्कारपूर्ण वचन नहीं बोल सकते, तो कम से कम वाणी में संयम का हमारा प्रयास अवश्य होना चाहिए।

महात्मा विदुर ने कहा है कि कटु वचन रूपी बाण मुख से निकल कर दूसरों के मर्मस्थलों को घायल कर देते हैं, जिसके कारण घायल व्यक्ति दिन-रात दुखी रहता है। उनका परामर्श है कि ऐसे कटु वाग्बाणों का त्याग करने में अपना और औरों का भला होता है। बाणों से हुआ घाव भर जाता है, कुल्हाड़े से काटा गया वृक्ष फिर उग जाता है, लेकिन वाणी से कटु वचन कहकर किए गए घाव कभी नहीं भरते। इसलिए जो मनुष्य कठोर वचन बोलता है, वह सिर्फ अपने बारे में सोचता है, दूसरों के बारे में नहीं। स्वार्थी नहीं, बल्कि परमार्थी बनने के लिए आपको कठोर वचनों को छोड़ना ही पड़ेगा।

मनुस्मृति में मनुष्य के जीवन के लिए जरूरी दस बातें बताई गई हैं, जिनमें पहली जो चार बातें हैं, वे बोलने के संबंध में ही हैं। जिनमें कहा गया है कि हम कठोर न बोलें। कोई भी बात मधुरता से, मृदुलता से और अपनी वाणी में अपने हृदय का रस घोल कर कहनी चाहिए। कठोर वाणी का तो पूरी तरह परित्याग करना चाहिए। वह मनुष्यों में सबसे अधिक अभागा है, जो कठोर शब्दों द्वारा लोगों के मर्मस्थलों को विदीर्ण करता है।

हमारे मनीषियों ने बार-बार कहा है कि जो व्यक्ति दूसरों के प्रति कड़े शब्दों का व्यवहार करता है और पर-निंदा करता है, वह ऐसा पापाचरण करता हुआ शीघ्र ही विपत्तियों में फंस जाता है। इसलिए न तो किसी को अपशब्द कहें, न दूसरों का अपमान करें और न दुष्ट लोगों की संगति करें। रूखी, कठोर व दूसरों को पीड़ा पहुंचाने वाली वाणी का त्याग होना चाहिए, क्योंकि मनुष्य की वृद्धि और विनाश उसकी जिज्ज के अधीन होते हैं। मनुष्य का मान-अपमान, उसका आदर-अनादर, उसकी प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा सब उसकी जिज्ज के वशीभूत होते हैं। वाक-कुशलता बुद्धिमान का एक प्रशंसनीय लक्षण होता है। विदुर ने लक्ष्मी व यश दिलाने वाले सात लक्षण बताए हैं, जिनमें एक मधुर वाणी भी है। जिस मनुष्य में यह गुण होता है, वह अपने विरोधियों और शत्रुओं को भी मित्र बना लेता है। कटु वचन नासूर की तरह प्रेम को खा जाते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है, रोष न रसना खोलिए, बरु खोलिय तलवार..सुनत मधुर परिनाम हित, बोलिय वचन विचार..। अर्थात भले ही तुम तलवार खोलो, परंतु रोष में आकर अपनी जिज्ज मत खोलो। जो बात सुनने में मधुर हो और परिणाम में हितकारी हो, ऐसे ही वचन विचारपूर्वक कहने चाहिए। वाणी का उचित प्रयोग ही सुखकारी होता है। जिन लोगों के मुख पर प्रसन्नता होगी, हृदय में दया होगी, वाणी में मधुरता होगी, क‌र्त्तव्य में परोपकार होगा, वे सभी के लिए वंदनीय होते हैं।

मीठे वचनों का सुख लाभकारी है। हमें यह प्रयास करना चाहिए कि हमारा जीवन ज्ञान, निर्मलता, शक्ति व शुभ वाणी से अलंकृत हो। हम जिज्ज पर संयम साध लें।

लाजपत राय सभरवाल

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