कुंभ का अमृत योग
यह मरणधर्मा प्राणी मृत्यु से बहुत अधिक भयभीत रहता है, प्राणि मात्र की यही हार्दिक इच्छा रहती है कि मैं मरूं नहीं। जो आत्मा की अमरता का अनुभव करते हैं वे मृत्यु को एक जीवन की दशा समझते हैं।
मत्र्यो मृत्युव्यालभीत पलायन्।
लोकान् सर्वान् निर्भयं नाधि गच्छन्।
स्वदूपादाब्जं प्राप्य यदृच्छयाद्य।
स्वस्थ:शेते मृत्युरस्मादपैति। (श्रीमद्भागवत)
यह मरणधर्मा प्राणी मृत्यु से बहुत अधिक भयभीत रहता है, प्राणि मात्र की यही हार्दिक इच्छा रहती है कि मैं मरूं नहीं। जो आत्मा की अमरता का अनुभव करते हैं वे मृत्यु को एक जीवन की दशा समझते हैं। किनतु अन्य साधारण प्राणी तो सदा सशंक रहते हैं, कहीं हम मर न जाएं वे मृत्यु से बचने के अमर होने के अनेकों उपाय करते हैं। अमृत प्राप्त करने के लिये उद्योग करते रहते हैं। भगवान की जिन पर कृपा होती है, ऐसे पुण्यवान प्राणी ही अमृत प्राप्त करते हैं। अमृत प्राप्त करने का प्रयत्न तो सभी करते हैं, किन्तु जो भगवान को हृदय में रखकर उनकी ही आज्ञा से कार्य करते हैं अमृत तो उन्हीं को प्राप्त होता है।
पौराणिक कथा है- असुरों ने सुरों को रण में पराजित कर दिया। सुरों देवताओं का एकमात्र आश्रय हरि ही हैं। वे दौड़े दौड़े विष्णु भगवान के पास गये और बोले महाराज हमें असुरों ने हरा दिया। भगवान ने कहा-हरा दिया तो क्या हुआ? हारे हरि ते जमा मिले जीते जम के द्वार यदि तुम हारते नहीं तो मेरे पास क्यों आते? चैन की वंशी बजाओं राम राम रटो। देवताओं ने कहा अजी महाराज हराते क्यों हो, आपकी शरण में भी हार? हमें अजर अमर कर दो। भगवान ने कहा अच्छा यों करो, अमृत निकाल कर पी लो देवता बोले, महाराज अमृत कहां मिलेगा? कैसे मिलेगा? कब मिलेगा? भगवान बोले-अमृत अगाध समुद्र में मिलेगा। पुरुषार्थ से मिलेगा और जब तुम पुरषार्थ करते करते थक जाओगे तब मिलेगा।
देवता बोले महाराज, अगाध समुद में से अमृत कैसे निकालें? पुरुषार्थ में तो हमारे शत्रु असुर हमसे भी बढ़कर हैं, पुरुषार्थ से ही अमृत मिलता हो तब तो वे ही उसे गटक जायेंगे। भगवान ने कहा अमृत मिलता तो पुरुषार्थ से ही है किन्तु पीता वही जो मेरे शरण में आता है। तुम पुरुषार्थ भी करो और मेरे शरणागत बने रहो। असुर पुरुषार्थ तो करते हैं किन्तु मझसे विमुख बने रहते हैं। तुम अपने शत्रु असुरों से मेल करके उनके ही पुरुषार्थ मिलाकर अमृत निकाल लो फिर मैं देख लूंगा। भगवान की बात देवताओं ने मान ली उन्होंने असुरों की सहायता से समुद मंथन करके अमृत निकाल लिया। सभी औषधियों के जानने वो धन्वतंरि भगवान अमृत का कुंभ लेकर समुद्र से निकले। देवता निराश होकर बोले महाराज, हम इन असुरों से थोड़े ही जीत सकते हैं इनसे अमृत कुंभ थोड़े ही छीन सकते हैं। भगवान ने कहा कि तुम पुरुषार्थ तो करो पुरुषार्थ करते करते जब थक जाओगे वहीं मैं तुम्हारी सहायता के लिये पहुंच जाऊंगा। सभी जानते हैं कि देवताओं का एक दिन हम मनुष्यों के एक वर्ष के समान है। अत: हमारें वर्षो से अमृत की छीनाझपटी बारह वर्ष तक होती रही और बारह वर्ष में चार स्थानों पर अमृत कुंभ का संसर्ग हुआ। अत: इन चार स्थानों में प्रत्येक बारह वर्ष पर कुंभ का योग होता है।
चन्द्र: प्रस्त्रवणादू रक्षां सूर्यो विस्फोटनाद्दधौ।
दैत्येभ्यश्च गुरु रक्षां सौरिर्देवेन्द्रजाद्भायत्।।
अर्थात अमृत कुंभ की रक्षा में पांच देवताओं ने विशेष श्रम किया। असुरों से जब कुंभ के लिये छीनाझपटी हो रही थी तो चन्द्रमा ने उसे गिरने नहीं दिया, सूर्य ने उसे फूटने से बचाया, वृहस्पति जी ने दैत्यों से रक्षा की और शनि ने इन्द्र के भय से रक्षा की। इसीलिए इन ग्रहों के योग से ही कुंभ का योग होता है। प्रयाग कुंभ के सम्बन्ध में लिखा है-
मकरे च दिवानाथे वृषगे च बृहस्पतौ।
कुंभयोगो भवेत तत्र प्रयागे हृातिदुर्लभ:।।
माघे वृषगते जीवे मकरे चन्द्रभास्करौ।।
अमावस्यां यदा योग: कुम्भाख्यस्तीर्थनायके।।
अर्थात सूर्य तो मकर राशि में हो और वृहस्पति वृष राशि पर तब प्रयाग में अति दुर्लभ कुंभ का योग होता है। माघ का महीना हो, अमावस्या तिथि हो वृहस्पति वृष राशि पर हों और सूर्य चन्द्रमा मकर राशि पर, तब तीर्थराज प्रयाग में अत्यंत दुर्लभ कुंभ योग होता है।
जो भी माघ मास में विशेषत: माघ की मौनी अमावस्या को यहां आकर स्नान करेंगे, माघ मकर भर गंगा यमुना से कल्प की हुई बालुका में वास करेंगे उन सब को अमृत तो प्राप्त होगा किन्तु अमृत का पान वे ही पुरुष कर सकेंगे जिनका प्रभु के पादपद्यों में प्रेम होगा। यहां आने का प्रयत्??न तो सभी करेंगे सभी कष्ट सह कर भांति भांति के दुख उठाकर आवेंगे परुषार्थ करेंगे। भगवत सम्बन्धी भागवती कथाओं का श्रवण करेंगे, यथार्थ अमृत का पान तो वे ही कर सकेंगे। सभी युगों में विशेषकर कलिकाल में नामामृत और कथामत् ये ही परम सार हैं, इनका पान करने वालों तो ही तीर्थवास और कुंभस्नान का फल प्राप्त हो सकेगा।
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