विश्वास मन की चीज है
श्रद्धा और विश्वास के अलग-अलग ध्रुव हैं। विश्वास मन की चीज है, विचार द्वारा नियमित और पोषित है, महज ज्ञात के क्षेत्र में परिचालित हैं। यहीं पर उसकी अर्थवत्ता भी है।
श्रद्धा और विश्वास के अलग-अलग ध्रुव हैं। विश्वास मन की चीज है, विचार द्वारा नियमित और पोषित है, महज ज्ञात के क्षेत्र में परिचालित हैं। यहीं पर उसकी अर्थवत्ता भी है। अपनी सीमा का उल्लंघन करते ही वह अंधविश्वास का रूप धारण कर लेता है। श्रद्धा विचार का उत्पाद नहीं है। यह स्वत:स्फूर्त है। यह हृदय में तब प्रकट होती है जब ज्ञात के सारे क्षेत्र को नकार दिया जाता है। श्रद्धा अंत:चेतना में अज्ञात (सत्य) का स्पर्श है, जो ज्ञात के सारे विषयों से विवस्त्र हो गई है। श्रीअरविंद की दृष्टि में, श्रद्धा अंतरात्मा में एक निश्चिति है, जो मानसिक या बाह्य परिस्थिति पर निर्भर नहीं है। निश्चिति निर्द्वद्व की अवस्था है, जहां विरोध ठहर जाते हैं-शांत हो जाते हैं। यह अज्ञात के रूप में ज्ञात है और अनिर्धार्य के रूप में निर्धार्य है भवन की नींव की तरह। मन की सीमा विश्वास है, जो विरोधों के खेल में उछल-कूद करता रहता है और कभी भी निश्चिति के धरातल पर नहीं पहुंचता है। मन विश्वास के आधार पर एक धारणा बना लेता है, जो कृत्रिम इमारत की तरह है और तनिक से झटके में ढह जाता है।
ज्ञात के क्षेत्र में मनुष्य अनेक विकल्पों से घिरा रहता है। परंतु जब वह महान अज्ञात के सामने होता है तो मानसिक अशांति खत्म हो जाती है। विश्वासों के बोझ से दबा मनुष्य श्रद्धा की दिव्य अनुभूति से वंचित रह जाता है। श्रद्धा तब प्रकट होती है जब विश्वास द्वारा अर्जित सारी अवधारणाएं अवकाश पर चली जाती हैं। जब ज्ञात की निरर्थकता महसूस होने लगती है तो मनुष्य को अपने भीतर अज्ञात की फुसफुसाहट सुनाई देने लगती है। इस अनहदनाद को कबीर ने सुना तभी तो कहा, बिनु बाजा झनकार उठे जहुं समुझि परे जब ध्यान धरे। जब व्यक्ति अज्ञात की नि:शब्द ध्वनि सुनने में मस्त हो जाता है तभी उसके प्रति श्रद्धा आविभूर्त होती है। व्यक्ति एक रहस्यमयी निश्चिति से संपन्न हो जाता है। तर्कबुद्धि से न तो इसे सिद्ध किया जा सकता है और न ही असिद्ध। यह केवल श्रद्धा की चीज है।
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