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अंतस की पवित्रता है प्रसन्नता

सद्गुणों को अपनाकर अंतस को पवित्र किया जा सकता है, तभी फूटता है प्रसन्नता का श्चोत, जो दूसरों के जीवन को भी खुशियों से भर देता है..

By Edited By: Published: Tue, 12 Mar 2013 03:29 PM (IST)Updated: Tue, 12 Mar 2013 03:29 PM (IST)
अंतस की पवित्रता है प्रसन्नता

प्रसन्नता आंतरिक पवित्रता को बताती है। जब चित्त शुद्ध होकर सत्वगुण संपन्न हो जाता है, तभी प्रसन्नता की सहज वृत्ति जाग्रत होती है। जिनका अंतस् निर्मल, पवित्र एवं स्वच्छ हो जाता है, वे जब हंसते हैं, तो सारे वातावरण में प्रसन्नता के श्चोत फूट पड़ते हैं। उनके चारों ओर प्रसन्नता साकार हो उठती है। दु:खी-क्षुब्ध व्यक्ति भी उस प्रसन्नता के वातावरण में अपने दु:खों को कुछ देर के लिए त्याग देता है।

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उत्साह, उल्लास और उमंग तभी आते हैं, जब हम भीतर से प्रसन्नचित हों। सद्गुणों को अपनाकर प्रसन्नता और आनंद का समावेश अपने आप हो जाता है। तब हमारा दायित्व बन जाता है कि अपनी प्रसन्नता को लोगों में बांटें। जिस तरह भवन के निर्माण में प्रत्येक ईट का अपना विशेष स्थान है, उसी प्रकार समाज में प्रत्येक व्यक्ति महत्वपूर्ण है। उनके दु:ख को दूर कर उन्हें प्रसन्नता देना हमारा कर्तव्य बनता है। महान संत पॉल के शब्दों में, हम सब एक-दूसरे के अन्योन्याश्रयी हैं। हमें किसी को भी घृणा या उपेक्षा से देखने का अधिकार नहीं है। जीवन में प्रसन्नता के अवतरण के लिए समता का सिद्धांत आवश्यक है। गीता का यही सूत्र है-सबसे प्रेम करना, सबके अस्तित्व को अपनी ही तरह मानकर उसका पूरा आदर करना। इससे घृणा, अनुदारता, स्वार्थपरता आदि दोष दूर होंगे एवं प्रसन्नता का प्रकाश प्रकट होने लगेगा। अहंकार, पड़ोसी के दु:ख से मतलब न रखने और अपने तक सीमित रहने की वृत्ति ही दु:ख का मूल कारण है। क्योंकि अंतस में जब तक प्रेम का उदय नहीं होता, तब तक प्रसन्नता भी नहीं आती। प्रेम हमेशा समतामूलक होता है।

प्रसन्नता की प्राप्ति के लिए उदार बनें। सबके लिए हृदय खोलकर रखें। सबके दु:ख दूर करने का प्रयास करें। लोगों की मदद करें। प्रसन्नता वह निर्झर है, जिसके प्रवाहित होने से अपना ही नहीं, पास-पड़ोस के लोगों का जीवन हरा-भरा हो जाता है। यही आध्यात्मिक उन्नति का प्रथम सोपान है।

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