प्रयाग की त्रिवेणी का यौगिक रहस्य
देश के आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक विकास में भारत वर्ष का कोई भी नगर अथवा क्षेत्र प्रयाग की समानता नहीं कर सकता। वैदिक काल में जब केवल प्रयाग बना था यहां के साधु महात्माओं ने आत्मतत्व के गूढ़तम रहस्योद्घाटन में अपना सारा जीवन लगा दिया था।
देश के आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक विकास में भारत वर्ष का कोई भी नगर अथवा क्षेत्र प्रयाग की समानता नहीं कर सकता। वैदिक काल में जब केवल प्रयाग बना था यहां के साधु महात्माओं ने आत्मतत्व के गूढ़तम रहस्योद्घाटन में अपना सारा जीवन लगा दिया था। प्रयाग ब्रंा का यज्ञ स्थान, मुनियों का साधना स्थान, देवताओं का आमोद स्थान और पुण्डरीकाक्ष भगवान का प्रिय निवास स्थान है। देव नदी गंगा, सूर्यतनया यमुना और ध्यानागम्य सरस्वती ने यहां त्रिकोणात्मक भूखंड बनाकर मानव प्रयास की अलभ्य वस्तु मुक्ति को भी सुलभ कर दिया है।
इस नगर का माहात्म्य सनातन है, यह प्रत्येक युग में, इतिहास के प्रत्येक काल में अपना गौरव और विशेषता ज्यों का त्यों बनाए रखा है। इसका महत्व एक साधारण तथ्य से ही स्पष्ट हो जाता है कि चारों ओर से हर प्रकार की सवारियां रोक दी जाएं और रहने सहने की सब सुविधाएं छीन ली जाएं फिर भी माघ मास पर्व पर उमड़े लाखों, करोड़ों श्रद्धालुओं का जन सैलाब संगम स्नान कर पुण्य लाभ लेते हैं।
प्रयाग की विशेषता में कहा जाता है-
न यत्र योगा चरण प्रतीक्षा
न यत्र यज्ञेष्टि विशिष्ट दीक्षा।
न तारक ज्ञान गुरोरपेक्षा।
स तीर्थ राजा जयति प्रयाग:।।
त्रिवेणी में योग का रहस्य भी मुक्ति का मार्ग माना गया है। इसके आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन और प्राणायाम ये चार बहिरंग हैं और प्रत्याहार, धारण, ध्यान और समाधि ये चार अंतरंग हैं। बहिरंग और अंतरंग को मिलाने वाला अंग प्रत्याहार है। जीव बाहरी ओर आन्तरिक इन्द्रियों में बद्ध रहता है। इसी कारण से दोनों प्रकार की इन्द्रियों से बीतराग कराने का जो अभ्यास है, उसे यम और नियम कहते हैं। यम और नियम के साधनों से साधक मुक्ति प्राप्त करने का अधिकारी होता है, इसके पश्चात योग के तृतीय अंग आसनों की साधना कर, जो संख्या 84 है, साधक अपने शरीर को मुक्ति के उपयुक्त बनाता है। चांचल्य से बंधन और धैर्य से मुक्ति होती है। इसलिए शरीर को धैर्यमुक्त करने की शैली को आसन कहते हैं। प्राण को पूरक, कुंभक, रेचक द्वारा धैर्यमुक्त करने की शैली को प्राणायाम कहते हैं। इन साधनाओं के अनंतर साधक को प्रयाग के अंतरंग साधन का अधिकार प्राप्त होता है, क्योंकि मन और वायु दोनों कारण और कार्य रूप से एक ही है।
प्रत्याहार साधन के द्वारा साधक अपनी बाहरी दृष्टि को बाहरी संसार से हटाकर अंतर्जगत में ले जाता है। कछुआ जिस प्रकार अपने अंगों को समेट लेता है, उसी प्रकार प्रत्याहार द्वारा साधक विषयों से अपनी भोग प्रवृत्ति को बाहरी संसार से खींच कर अंतर्जगत में पहुंच जाता है। अंतर्जगत में पहुंचकर सूक्ष्म अंतरराज्य के किसी विभाग का सहारा लेकर अंतरराज्य में ठहरे रहने को ही धारणा कहते हैं। इसके बाद साधक को अंतरराज्य के दृष्टा परमात्मा के सगुण अथवा निर्गुण रूप के ध्यान करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। उस समय ध्याता ध्यान और ध्येय अथवा साधक साधन और साध्य को त्रिपुटी के सिवाय कुछ नहीं रहता। इसी को त्रिवेणी कहते हैं। यहीं पर स्नान करने से पापी भी मुक्त हो जाता है। इसको समाधि अवस्था कहते हैं। इसी अवस्था को प्राप्त करने के लिए महर्षियों ने मंत्रयोग, हठयोग, लययोग और राजयोग, इन चारों योगों की जो क्त्रिया बताई है वे इन्हीं आठ अंगों की सहायता से निर्णीत हुयी हैं। परमतत्व आत्मप्राप्ति के लिए, मनुष्य अपने अधिकार, पात्रता तथा साम?र्थ्य के अनुसार इन चारों में से किसी एक शैली से साधना करके मुक्ति प्राप्त कर सकता है, जैसे मंत्र केवल ऋषियों मुनियों के लिए है।
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