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अखाड़ों की ध्वजा के नीचे ही धर्म की रक्षा संभव

जूना अखाड़े के महामंडलेश्वर स्वामी शंकरानंद सरस्वती मानते हैं कि धर्म की रक्षा अखाड़े ही करते हैं और उसको साथ लिए बिना कोई भी धार्मिक लक्ष्य प्राप्त करना मुश्किल है। विहिप को वह धर्म रक्षक नहीं मानते। उनका कहना है कि जब तक विहिप अखाड़ों की धर्मध्वजा के नीचे बैठकर मंथन नहीं करेगी, उसकी मंशा पूरी नहीं हो पाएगी।

By Edited By: Published: Sat, 09 Feb 2013 03:24 PM (IST)Updated: Sat, 09 Feb 2013 03:24 PM (IST)
अखाड़ों की ध्वजा के नीचे ही धर्म की रक्षा संभव

जूना अखाड़े के महामंडलेश्वर स्वामी शंकरानंद सरस्वती मानते हैं कि धर्म की रक्षा अखाड़े ही करते हैं और उसको साथ लिए बिना कोई भी धार्मिक लक्ष्य प्राप्त करना मुश्किल है। विहिप को वह धर्म रक्षक नहीं मानते। उनका कहना है कि जब तक विहिप अखाड़ों की धर्मध्वजा के नीचे बैठकर मंथन नहीं करेगी, उसकी मंशा पूरी नहीं हो पाएगी। वे कहते हैं कि धर्म की रक्षा के लिए कितने ही स्वयंभू आए लेकिन बाद में सब अखाड़े के अंदर ही समाहित हो गए। हालांकि उनका मानना है कि विहिप ने देश में हिंदुओं और धर्माचार्यो के लिए बहुत काम किया है, जो सराहनीय है लेकिन समय-समय पर उसकी राजनीतिक भाषा संगठन को नुकसान पहुंचा देती है। स्वामी शंकरानंद सरस्वती से रवि उपाध्याय की बातचीत के प्रमुख अंश-

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भदोही के हरिहर पुर गांव में एक कुलीन ब्राहमण और जमींदार परिवार में जन्मे स्वामी शंकरानंद सरस्वती का यह तीसरा नामकरण है। उनके पिता बद्री नारायण तिवारी ने उनका नाम रामप्रसाद रखा। संतों से दीक्षा लेने के बाद वे रजनीश चैतन्य ब्रंाचारी बन गए। अब वे स्वामी शंकरानंद सरस्वती नाम से जाने जाते हैं। बड़े भाई की सर्पदंश से मौत ने उन्हें अंदर से इतना हिला दिया कि वे घरबार छोड़कर साधु बन गए। कक्षा 9 की पढ़ाई बीच में छोड़कर वे निकल पड़े। श्री ज्ञानेश्‌र्र्वर मठ के महामंडलेश्वर स्वामी भागवतानंद सरस्वती के संपर्क में आने के बाद वे उनके शिष्यत्व में आ गए। 1998 में मठ उत्तराधिकार मिला। 2001 में प्रयाग कुंभ में स्वामी भागवतानंद सरस्वती ने उन्हें महामंडलेश्वर की पदवी दी। स्वामी शंकरानंद सरस्वती ने महाराष्ट्र में हिन्दी भाषा और वैदिक सनातन धर्म के लिए बहुत कार्य किया है। स्कूल- कॉलेज खुलवाए हैं। महाराष्ट्र में हिंदी भाषियों पर हुए हमले का विरोध करने से भी वह पीछे नहीं रहे।

सांसारिक जीवन से विरक्ति होने पर आपने भदोही या हिमालय छोड़कर मुंबई क्यों चुना?

मुंबई मैने नहीं चुना। ईश्‌र्र्वर की जो इच्छा थी वही हुआ है। घर से निकला था तो कहां जाना था पता नहीं था। देश के विभिन्न शहरों में घूमा। यह जरूर था कि मुबंई में मेरे परिवार को बहुत बड़ा कारोबार था। ऐसे में यहां थोड़ी पहचान थी लेकिन गुरु के दर्शन यहीं होने थे ऐसे में हरिद्वार, काशी, उत्तर काशी, आदि स्थानों में संतों से दर्शन और वहां प्रवास करते हुए यहां पहुंच गया। अब यहां धर्म का प्रचार प्रसार कर रहा हूं।

मुंबई में धर्म को लेकर क्या रुझान है। यहां पाश्चात्य सभ्यता का बहुत जोर है। ग्लैमर हावी है। ऐसे में कहां दिक्कत आती है?

यह कोर कपोल बात है। मुंबई में धर्म के प्रति जबरदस्त रुझान है। मुझे लगता है कि भारतीय संस्कृति मुंबई से निकल रही है। यहां धर्म बहुत सुरक्षित है। जितने भी धर्म के प्रचारक थे वह मुंबई जरूर आते हैं। यहां से करोड़ रुपये लेकर देश में धर्म का प्रचार प्रसार करते हैं। इन नगरी में बहुत सत्संग समितियां हैं। तमाम धार्मिक उत्सव में बहुत धर्म खर्च करते हैं यहां के लोग। भारी भीड़ एकत्र होती है। खास बात यह है कि सभी धर्मो के लोगों की यहां मान्यता है। धर्म यहंा काफी फलफूल रहा है।

मुंबई में युवा वर्ग का धर्म के प्रति कितना झुकाव है?

जो स्थिति पूरे देश की है वही यहां भी है। युवा वर्ग धर्म को लेकर ज्यादा उत्सुक है। धर्माचार्यो के आश्रमों में महिलाओं के साथ युवाओं की भीड़ भी दिखती है। मुंबई में जीवन इतना गतिमान है कि हर व्यक्ति भागता नजर आता है। इसके बाद भी धार्मिक उत्सवों में युवाओं की भागीदारी बहुत रहती है।

महाराष्ट्र में हिंदी भाषी लोगों को हेय दृष्टि से देख जाता है। पिछले दिनों उनके ऊपर हमले हुए। काफी लोग महाराष्ट्र छोड़कर भाग आए। इसमें आपकी क्या भूमिका रही है?

सब कुछ राजनीतिक स्टंट है। मीडिया ने भी बढ़-चढ़ कर यह सब दिखाया। ठाकरे परिवार हमारे पास आता है। उद्धव एवं राज ठाकरे से जुड़ाव है। हिंदी भाषा या हिंदी प्रांत के प्रति उनमें कोई दुर्भावना नहीं है। उनके साथ ऐसे काफी लोग हैं जो हिंदी भाषी प्रांत के हैं। हिंदी भाषियों के बिना इनका काम नहीं चल सकता है। इनके वकील उत्तर भारतीय हैं। वैसे भी जो वहां बढ़े हिंदी भाषी लोग हैं, उनके यहां जाने की किसी की हिम्मत नहीं है। फिर जिसकी जमा पूंजी वहां जम गई वह कहां जाएगा। ज्ञानेश्‌र्र्वर मठ में वैसे भी मराठी, गुजराती आदि सब आते हैं। सबमें काफी सामंजस्य है। हो सकता है कुछ वैचारिक भिन्नता सबमें रहे लेकिन वहां सब मिलजुल कर रह रहे हैं।

आपके मुताबिक वर्चस्व स्थापित करने का मामला है?

बिल्कुल। यही सही बात है। राजनीति में अपना एक कद बनाने की लड़ाई है। ऐसा पूरे देश में हो रहा है। धर्म के क्षेत्र में भी यही स्थिति है। धर्माचार्य भी ऐसी स्थिति पैदा करते हैं। मैं इन स्थितियों में सबके बीच सामंजस्य पैदा करने में लगा हूं। महाराष्ट्र के कोने-कोने में मैं गया हूं। धर्म वेदांत और शिक्षा के क्षेत्र में काफी काम किया है। कुंभ पर्व में भी धर्म का प्रचार प्रसार कर रहा हूं। स्वास्थ्य के दिशा में कई प्रस्ताव है।

धर्माचार्यो के बीच भी वैचारिक भिन्नता रहती है। ऐसा नहीं लगता है कि जिन वजहों से आप सांसारिक जीवन छोड़कर इस क्षेत्र में आए आपका निर्णय सही था?

वैचारिक मतभेद सब जगहों पर हैं। धर्माचार्य भी समाज के अंग हैं। ऐसे वे इससे कैसे अछूते रह सकते हैं। जिन उद्देश्यों से सांसारिक जीवन त्यागा था, वह पूरा हो गया। धर्म के क्षेत्र में काफी काम किया है। गौशालाएं बनवाई हैं। जहां वृद्ध गौ की सेवा की जाती है। श्री ज्ञानेश्‌र्र्वर हिंदी स्कूल की स्थापना की गई है। यहां वेदवेदांत की शिक्षा अंग्रेजी में दी जाती है। श्री बालेश्‌र्र्वर महादेव मंदिर का निर्माण कार्य चल रहा है।

धर्म के क्षेत्र में कोई लक्ष्य बचा है कि राजनीति में जाने का इरादा है?

राजनीति में कभी जाने का इरादा नहीं रहा है। इस दिशा में कभी मन में ख्याल भी नहीं आता है। धर्म के क्षेत्र में उच्च स्थान पर जाने की इच्छा है। ऐसे स्थान पर, जहां मेरी बात सुनी जाए।

महामंडलेश्‌र्र्वर परिषद के गठन के संबंध में आपके क्या विचार हैं?

महामंडलेश्‌र्र्वर अखाड़े बनाते हैं। अखाड़ों का गठन इसीलिए हुआ है कि वे अच्छे महामंडलेश्वर का गठन करें। अखाड़ों का विचार सर्वोपरि एवं सर्वमान्य है। ऐसे में महामंडलेश्‌र्र्वर परिषद का गठन उचित नहीं है। इसका औचित्य मेरी समझ में अभी तक नहीं आया। इसकी आवश्यकता क्यों आ गई। हम तो धर्म के प्रचार प्रसार के लिए हैं। अखाड़े हमारी व्यवस्था करते हैं और हम उनकी। यदि अखाड़े हमारी बात नहीं मानते हैं तो ऐसे कदम उठाए जाने चाहिए।

विहिप कुंभ में संतों का सम्मेलन बुलाती है। धर्म संसद करती है। आप उसमें क्यों नहीं जाते हैं?

विहिप धर्म रक्षक नहीं है। धर्म सदैव अखाड़ों के नीचे सुरक्षित रहा है। विहिप को अखाड़ों से बात करनी चाहिए। धर्मध्वजा के नीचे सभी अखाड़ों के साथ बैठकर उसे विभिन्न मुद्दों पर मंथन करना चाहिए। ऐसा वह करेगा तभी उसकी मंशा सफल हो पाएगी। हालांकि विहिप काम बहुत अच्छा है। हिंदुओं को एक मंच पर लाने में विहिप की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन उसे सही दिशा में करने की जरूरत है। क्योंकि समय-समय पर कई स्वयंभू संगठन आए और उनका अस्तित्व समाप्त हो गया या वे अखाड़ों की अंदर समाहित हो गए।

घर- बार छोड़ने का क्या कारण था?

सब-कुछ अचानक हो गया। कक्षा नौ में पढ़ाई के दौरान 1970 में गांव में तूफान आया था। उसी में बड़े भाई को एक सांप ने काट लिया। बाद में उनकी मौत हो गई। बड़े भाई का गौना आए चार दिन हुए थे।

वह स्थिति और पास पड़ोस में आए दिन भाइयों में विवाद देखकर मेरा मन भटकने लगा। गांव में मेरे घर के सामने एक बड़ी दालान हुई करती थी उसमें तमाम संत आए दिन आकर रुकते थे। उनकी सेवा मैं ही करता था। इन्हीं सबको देखकर एक दिन मैने घर छोड़ दिया। जगह-जगह राम कथा सुनाता हुआ काशी, हरिद्वार, दिल्ली आदि स्थानों में भ्रमण करता मैं मुंबई पहुंचा जहां गुरु जी से मुलाकात होने पर उन्हीं का होकर रह गया।

अब भदोही अपने गांव जाते हैं?

नहीं। जब से घर छोड़ा लौटकर नहीं गया। मित्र या बंधु मिलते हैं लेकिन पुरानी बात नहीं करता हूं। अब मैं इन सबसे बहुत दूर चला गया हूं।

मेले की व्यवस्था के संबंध में आपको क्या कहना है

सब कुछ अच्छा है।

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