किसने खाए भिलनी के बेर.
रात के यही कोई ग्यारह बजे होंगे। मेले की चकाचौंध से दूर मैं चहलकदमी करते हुए सेक्टर ग्यारह की ओर बढ़ चला था। गंगा के प्रवाह की सुमधुर आवाज मेरे कानों में पड़ने लगी थी।
कुंभनगर। रात के यही कोई ग्यारह बजे होंगे। मेले की चकाचौंध से दूर मैं चहलकदमी करते हुए सेक्टर ग्यारह की ओर बढ़ चला था। गंगा के प्रवाह की सुमधुर आवाज मेरे कानों में पड़ने लगी थी। इसमें कोलाहल तो था लेकिन आकर्षण भी। गंगा के जल में पड़ रही रोशनी अलग ही छटा बिखेर रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे पानी की एक-एक बूंद मोती बन गयी हो। सम्मोहित करने वाली इस आवाज और सुदूर तक बिखरी सुनहरी छटा को निहारते हुए मैं काफी करीब तक पहुंच गया। इसी बीच एक बच्चे के रोने की आवाज ने मुझे सम्मोहन से विरत किया। यह आवाज पास के ही एक टेंट से आ रही थी। आवाज धीरे-धीरे तेज होती जा रही थी। कुछ और पास पहुंचने पर एक महिला की दुलार और पुचकार भरी आवाज सुनायी दी। लेकिन इसके बाद भी बच्चा चुप होने को तैयार नहीं था। मर्माहत करने वाले इस बाल रुदन ने मुझे टेंट के पास जाने को मजबूर कर दिया। पास पहुंचा तो मद्धिम रोशनी में एक महिला अपने दुधमुंहे बच्चे को गोद लेकर दुलारती नजर आयी। शायद बच्चा भूख के कारण रो रहा था और मां उसे दिलासा देकर चुप कराने का प्रयास कर रही थी। मन में जिज्ञासा ने जन्म लिया। आखिर इतने बड़े धार्मिक मेले में कोई भूखा कैसे रह सकता है जहां सैकड़ों भंडारे और अन्न क्षेत्र चलते हों! मन न माना तो तो टेंट के दरवाजे पर पहुंचकर दस्तक दी। दरवाजा क्या बस एक पर्दा था। महिला ने पर्दा उठाकर मेरी ओर नजर डाली और जैसे सबकुछ समझ गयी। बोली, बाबू जी क्या करूं बच्चा दूध के लिए जिद कर रहा है। मेले में भोजन तो बहुत मिलता है लेकिन दूध कहां से लाऊं। यह है कि जिद किए जा रहा है। पैसे हैं नहीं कि इसे दूध खरीद कर दे दूं। मां की इस बेबसी ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया। मन में ख्याल आया, इसी सनातन धर्म में ईश्र्र्वर ने अवतार लेकर भिलनी के बेर खाए थे। भिलनी भी अपने बाग के सबसे मीठे बेर राम के लिए लाई थी। फिर क्यों इस धर्म क्षेत्र में ऐसी अनदेखी। मन न माना तो पूछ ही लिया। पति नहीं है क्या! वह बोली, हैं बाबू जी नशे की आदत है। जो कुछ पैसा था उसी में उड़ा दिया। इस मां की बेबसी और भिलनी के भाग्य की तुलना करते हुए मैं न जाने किन ख्यालों में खो गया। तंद्रा भंग हुई जब उसने दूध के लिए कुछ पैसे देने को कहा। हाथ अनायास ही जेब की ओर बढ़ गए। खुद को संभालते हुए आगे बढ़ा तो नदी किनारे एक नाव पर बच्चा ठिठुरता हुआ दिखा। शायद वह नाव की रखवाली कर रहा था। एक कंबल उसे कड़कड़ाती ठंड में गर्माहट देने में नाकाम साबित हो रहा था। वह बार-बार पैर सिकोड़ता और फिर कंबल को ऊपर की ओर खींचता। यह क्रम कई बार चला। तभी मुझे समय का ख्याल आया। रात काफी गहरा चुकी थी, एक बजने वाले थे। मेले में चल रहे धार्मिक आयोजन लगभग बंद हो चुके थे। मैं भी प्रभु प्र्रेम और मानव जीवन के अनसुलझे रहस्यों को सुलझाने का असफल प्रयास करता हुआ कैंप की ओर लौट चला।
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