गंगा तीरे कल्पवासियों की कठिन साधना
उगने के बाद झांकते-चटख होते ललछौहें सूरज की चमकती किरणें कुहासे को धकिया कर धरती का माथा चूम रही हैं। शुभ्र आकाश में लहराते झंडे। करीब चालीस किलोमीटर क्षेत्र में फैला है कल्पवास क्षेत्र। यहां मुस्कुराती हुई चारों दिशाएं हैं। गंगा की अविरल धारा है।
कुंभनगर। उगने के बाद झांकते-चटख होते ललछौहें सूरज की चमकती किरणें कुहासे को धकिया कर धरती का माथा चूम रही हैं। शुभ्र आकाश में लहराते झंडे। करीब चालीस किलोमीटर क्षेत्र में फैला है कल्पवास क्षेत्र। यहां मुस्कुराती हुई चारों दिशाएं हैं। गंगा की अविरल धारा है। कहीं हरिनाम संकीर्तन। कहीं चंदन तिलकित भाल। कहीं कीर्तन झर रहा तो कहीं कंठ से मानस की चौपाइयां निकल रहीं। मंत्र बुदबुदाते होठ भी हैं यहां। यूं कहें कि कल्पवासियों में समय की सारी छलनाओं से मुक्ति की सतत चेष्टा है। तप-और तपस्या में लीन लाखों लोग मोक्ष की कामना लिए लौकि कता से पारलौकिकता की ओर गमन करने को साधनारत हैं। मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने को यह सब कम कठिन नहीं है। हारी हुई मनुष्यता को आस्था की सीख देता महाकुंभ श्रद्धा की खोज का महामंत्र भर नहीं है। लाखों कल्पवासियों की बात करें तो यहां इहलोक के समस्त पाप हरने का और गंगा में तरने का उपक्त्रम भी है। देवताओं और पितरों के तर्पण के साथ जाने-अनजाने में किए गए पाप को धो डालने के लिए पूरे एक माह तक कल्पवासी स्नान, पूजा-अर्चना के साथ दान-दक्षिणा देकर उपकृत हो रहे हैं। हों भी क्यों नहीं। पूरे 54 साल बाद ऐसा संयोग बना है। सेक्टर दस में पौष पूर्णिमा से कल्पवास कर रहे जौनपुर के गायत्री पांडेय बताते हैं कि इस बार के कल्पवास का फल ही अनूठा है। बकौल पांडेय, कल्पवास की महत्ता निर्विवाद है। कहते हैं-माघ मकर गति रवि जब होई, तीरथ पति आवइं सब कोई। इस बार मकर राशि पर सूर्य गया है। इसी क्षेत्र में कल्पवास कर रहे हरिचेतन महाराज का कहना है कि-कल्पवास में सूर्य की किरणें जब शरीर पर पड़ती हैं तो शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नयन होता है। यह हमारी सनातन संस्कृति का बीज मंत्र है। कल्पवास करने वाले ज्यादातर लोग गृहस्थ हैं। जैसा कि शास्त्रों में कहा गया है-तीर्थ व्रतोद्यापन यज्ञ दानं मया सहत्वं यदि कर्म कुयार्:, वामांग मायामि तदात्वदीयं जमाद वाक्यं प्रथमम् कुमारी। तात्पर्य यह कि कोई भी तीर्थ-यात्रा, व्रत, उद्यापन, यज्ञ, और दान पत्नी के बिना सफलीभूत नहीं होता। मेला क्षेत्र में ज्यादातर कल्पवासी अपनी अर्धागिनी के साथ हैं। पंडित दयानंद ओझा और उनकी पत्नी सुषमा ओझा भी कल्पवास कर रहे हैं। दंपति बताते हैं कि कल्पवासी को पहला स्नान ब्रंामुहूर्त में करना होता है। इसके बाद घाटिया पंडों को दान-दक्षिणा देनी होती है। फिर स्वल्पाहार। तीसरे पहर फिर स्नान और उसके बाद संतों-महंतों की अमृतवाणी का रसपान। कल्पवासी खान-पान में भी कम परहेज नहीं करते। गाजर, मूली, बैगन, गोभी तथा तैलीय पदार्थो से बने भोज्य की उनके लिए वर्जनाएं हैं। बहरहाल, कल्पवास क्षेत्र में भौतिक जीवन की झिरी भी दिखाई देती है। बस्ती के रामनायक अपनी घरैतिन से लड़ पड़ते हैं। दाम्पत्य जीवन की मुंह चिढ़ौवल होती है। रामनायक पत्नी को लड्डू खाने को कहते हैं तो वह मधुमेह का हवाला देकर सिर हिला देती हैं।
इस पर रामनायक के मुंह से कहावत की मिठास फूट पड़ती है। कह उठते हैं-घिउ देत बाभन नरियाय। कल्पवासियों को मेला प्रशासन से मलाल है। तमाम लोगों की शिकायत है कि सिलेंडर ब्लैक में मिल रहा है। लेकिन कुछ भी हो आस्था की डगर में इस तरह की बाधाएं बड़ी मामूली होती हैं। क्यों? असल मकसद तो मुमुक्ष होने का है।
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