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काट दे ल्हासी, संभार के राजा कासी

काट दे ल्हासी, संभार के राजा कासी! (ल्हासी माने बजड़ा बांधने का मोटा रस्सा) मौज-मस्ती के चरम तक पहुंचे उत्सवी उमंग की रौ में निकली इस ललकार की गूंज अब शायद कभी सुनाई नहीं देगी।

By Edited By: Published: Mon, 08 Apr 2013 12:01 PM (IST)Updated: Mon, 08 Apr 2013 12:01 PM (IST)
काट दे ल्हासी, संभार के राजा कासी

वाराणसी। काट दे ल्हासी, संभार के राजा कासी! (ल्हासी माने बजड़ा बांधने का मोटा रस्सा) मौज-मस्ती के चरम तक पहुंचे उत्सवी उमंग की रौ में निकली इस ललकार की गूंज अब शायद कभी सुनाई नहीं देगी। वर्ना कभी वह दौर (सत्रहवीं सदी का उत्तरार्ध) भी था जब इस एक हांक के साथ ही चमक उठती थीं दर्जनों टंगारियां। उनकी धार का वार महफिल सजे बजड़ों (छत वाली नौकाएं) को बांधने वाली रस्सी की गांठ पर और तीर सी छूटी ये नौकाएं सीधे गंगा की गोद में सजे बुढ़वा मंगल उत्सव की पांत में पहुंच जाती थीं।

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नाम बुढ़वा मंगल और मौज-मस्ती का ऐसा दंगल कि साठा को भी पाठा बना दे। कहीं सफेद पर्दो से सजी जलपरी का जलवा तो कहीं गुलाबों की सुगंध से महमह तरंगिनी का ठाट। एक तरफ गंगा की लहरों पर इठलाती श्वेत शंखी तो दूसरी तरफ नाजों से बलखाती महाराज बनारस की मोरपंखी। तत्कालीन अंग्रेज लाट की पत्नी भी एक बार दर्शक बनीं काशी के मन-मिजाज की नुमाइंदगी करने वाले इस उत्सव की। ऐसी मंत्रमुग्ध कि डायरी में टांकने को शब्दों तक का टोटा। बस इतना ही लिखा अद्भूत-अवर्णनीय.! नृत्य-संगीत की महफिलों से सजी नौकाओं की अठखेलियों वाला दुनिया का सबसे अनूठा जल उत्सव.। नौकाओं के अलग-अलग नाम। साज-सज्जा के अनोखे सरंजाम। हर महफिल की अपनी अदा। हर पेशकश पर रसिकजन फिदा। छोड़ कर दुनिया भर के काम, पूरी तीन रातें बस रंगारंग प्रस्तुतियों के नाम। कई रसिया तो इन तीन दिनों में यहीं के होकर रह जाते।

वहीं कभी काशी के वैभव के प्रतीक रहे इस अनूठे उत्सव की परंपराओं को सहेजने की गरज से मंगलवार (नौ अप्रैल) को जब पर्यटन और संस्कृति विभाग प्रतीक आयोजन करेगा तो बहुत सारे लोगों को उत्सव के उत्कर्ष काल की कहानियां याद आएंगी। बताएंगी कि किस तरह अवांछनीय तत्वों की हरकतों का निशाना बन कर एक जीवंत उत्सव दम तोड़ गया। यादों के इस झुरमुट में बार-बार कौंधेंगे वे चेहरे भी जिन्होंने इस आयोजन की रंगीनियों को सहेजने के जतन में पूरी जिंदगी खपा दी। साहित्यकार पं. धर्मशील चतुर्वेदी कहते हैं- बाद के दिनों में कवि राहगीर जी, घनश्याम गुप्त व भानु जी जैसों ने अथक प्रयास किए समय की भूलभुलैया में गुम गई इस परंपरा को नई रंगत देने के। परिणाम यह कि प्रतीक रूप में ही सही उत्सव की पहचान बची रह गई।

वृद्ध अंगारक उत्सव-

बनारस में लखनऊ के नवाबों के प्रतिनिधि मीर रुस्तम अली ने सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में बुढ़वा मंगल उत्सव को नई रंगत के साथ स्थापित किया यह सही है, मगर इससे पहले भी काशी में वृद्ध अंगारक उत्सव के नाम से एक आयोजन प्रचलन में था, इसके प्रमाण मिलते हैं। हालांकि चैत्र कृष्ण पक्ष के आखिरी मंगल को मनाए जाने वाले इस उत्सव का स्वरूप उन दिनों सामूहिक जल यात्रा तक ही सीमित हुआ करता था।

बुढ़वा मंगल क्यों-

बुढ़वा मंगल की उपाधि इसलिए कि चैत महीने के इस आखिरी मंगलवार तक पहुंचते-पहुंचते फगुनहट और मस्ती की खुमार थक-हारकर बुढ़ा चुकी होती थी। दरअसल यह था होलिकोत्सव के विराम का पर्व और किसी भी विदा पर्व के साथ थकान के भावों का जुड़ जाना बिल्कुल सहज-और स्वाभाविक। शुरुआती दौर में उत्सव के साथ संकटमोचन हनुमान के दर्शन पूजन का विधान जुड़ा था, इसलिए हनुमान जी का प्रिय दिन मंगलवार ही इसकी पहचान बन गया।

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