और घनी हुई आकाशदीपों की कतार
आस्था-श्रद्धा से भीने कार्तिक महीने के अंतिम सप्ताह की गुरुवार को शुरूआत के साथ आकाशदीपों की कतार और घनी हो गई। उत्सवों की धनी नगरी काशी को अब इंतजार है चार माह की निद्रा से श्रीहरि के जागने का।
वाराणसी। आस्था-श्रद्धा से भीने कार्तिक महीने के अंतिम सप्ताह की गुरुवार को शुरूआत के साथ आकाशदीपों की कतार और घनी हो गई। उत्सवों की धनी नगरी काशी को अब इंतजार है चार माह की निद्रा से श्रीहरि के जागने का।
शुक्ल पक्ष की एकादशी को उनके देवलोक पधारने के साथ ही अनुष्ठानों की लडि़यां सजने लगेंगी। समापन होगा कार्तिक पूर्णिमा पर देवदीपावली के आयोजन से, जिसमें घाटों पर टिमटिमाते दीपों की कतार जाह्नवी के आंचल में सितारों की मानिंद सज जाएगी। पुरखों की राह आलोकित करने के लिए कार्तिक मासपर्यत आकाशदीप जलाने की परंपरा है। समयाभाव से जो पूरे माह दीप नहीं जला पाते अंतिम के एक सप्ताह ही दीप जलाकर पुण्य लाभ पाते हैं।
स्वर्ग सिधारे पितरों के मार्ग को आलोकित करने की भावपूर्ण सोच मन के तंत्रों से बुने गए काशिका दर्शन में ही मिल सकती है। कार्तिक में गंगा के घाटों पर आकाश दीप जलाने की परंपरा इसी भावप्रवण सोच का एक साकार स्वरूप है। सदियों पुरानी परंपरा को लोगों ने निभाया। पूर्वजों को याद करते आस्था के दीयों में भावनाओं की बाती लगाकर आकाशदीप जलाए।
30 दिनों का पुण्यपान-
कार्तिक में मासपर्यत स्नान का विधान है। गीता में उल्लेख है कि इस माह में ब्रहृम मुहूर्त में स्नान का विशेष फल है। इस बेला में सभी देवता जल में निवास करते हैं। ऐसे में स्नान से रोग से मुक्ति पाप का क्षय व स्वास्थ्य व लक्ष्मी का वास होता है। ज्योतिर्विद प्रो. सदानंद शुक्ला के अनुसार कार्तिक की पांच तिथियों में स्नान से माह भर का पुण्य मिलता है। इसमें से कार्तिक शुक्ल एकादशी व पूर्णिमा अभी शेष हैं। कामकाजी व्यस्तता वाले इन तिथियों में स्नान कर पुण्य लाभ पा सकते हैं।
दीपों की कहानी हजारा की जुबानी-
पुरनिये बताते हैं कि आकाशदीप जलाने की शुरुआत किसी समय पंचगंगा घाट से हुई थी। इसकी वजह यह रही कि हर की नगरी में 11 मास उनके नाम तो एक माह श्रीहरि को समर्पित हैं। वैभव लक्ष्मी की आराधना से शुरू कार्तिक में श्रद्धालुजन उनकी आराधना करते हैं। मान्यता यह है कि भगवान विष्णु पंचगंगा घाट पर स्वयं बिंदु माधव के रूप में विराजमान हैं। अतएव आकाश दीप जलाने का चलन काशी में सबसे पहले यहीं पर शुरू हुआ। इसकी प्राचीनता का अंदाज यहां श्रीमठ में स्थापित हजारे से लगाया जा सकता है।
इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने 1780 में इसका लाल पत्थरों से निर्माण कराया था। माना जाता है कि देश में यह अपनी तरह का अनोखा और एकमात्र हजारा है। इस पर एक हजार दीपों को एक साथ जलाने की व्यवस्था है। यह दीप स्तंभ भी आकाशदीप की परंपरा की गवाही देता अनेक स्मृतियों को समेटे मठ की सीढि़यों पर विद्यमान है। देवदीपावली के दिन इस पर एक हजार दीए टिमटिमाते हैं।
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