सत्ता में संतों की भागीदारी चाहते थे बाबा
गुरु में ही ईश्वर की अवधारणा रखने वाले बाबा जय गुरुदेव का मानना था कि संत ही समाज को सही दिशा दिखा सकते हैं और इसीलिए वह सियासत में संतों की भागीदारी चाहते थे। उनका मानना था कि सत्ता में संतों की पैठ से शुचिता को बढ़ावा मिलेगा। इसके लिए उन्होंने दूरदर्शी पार्टी भी बनाई थी लेकिन उनकी पार्टी चुनावों में सफल नहीं हो सकी। अंतत: उन्होंने खुद ही राजनीति से किनारा कर लिया। बाबा ने सत्ता में संतों की साझेदारी की जरूरत उस समय महसूस की जब वह जून 1975 में आपातकाल के दौरान जेल गए। उन्होंने आपातकाल का विरोध किया था। आगरा, बरेली, बेंगलूर के बाद उन्हें तिहाड़ जेल में रखा गया। 23 मार्च 1977 में वह जेल से छूटे। इस दिवस को उनके अनुयायी मुक्ति दिवस के रूप में मनाते हैं।
लखनऊ, [हरिशंकर मिश्र]। गुरु में ही ईश्वर की अवधारणा रखने वाले बाबा जय गुरुदेव का मानना था कि संत ही समाज को सही दिशा दिखा सकते हैं और इसीलिए वह सियासत में संतों की भागीदारी चाहते थे। उनका मानना था कि सत्ता में संतों की पैठ से शुचिता को बढ़ावा मिलेगा। इसके लिए उन्होंने दूरदर्शी पार्टी भी बनाई थी लेकिन उनकी पार्टी चुनावों में सफल नहीं हो सकी। अंतत: उन्होंने खुद ही राजनीति से किनारा कर लिया।
बाबा ने सत्ता में संतों की साझेदारी की जरूरत उस समय महसूस की जब वह जून 1975 में आपातकाल के दौरान जेल गए। उन्होंने आपातकाल का विरोध किया था। आगरा, बरेली, बेंगलूर के बाद उन्हें तिहाड़ जेल में रखा गया। 23 मार्च 1977 में वह जेल से छूटे। इस दिवस को उनके अनुयायी मुक्ति दिवस के रूप में मनाते हैं।
इसी दौरान उनके कई राजनीतिक नेताओं से रिश्ते प्रगाढ़ हुए जिनमें मुलायम सिंह यादव भी थे। आपातकाल के विरोध के बावजूद पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उनका सम्मान करती थीं और जेल से छूटने के बाद उनसे मिलने मथुरा भी पहुंची थीं। हालांकि इसके राजनीतिक निहितार्थ भी थे। बाबा के अनुयायियों की फौज चुनावी परिणाम में अहम भूमिका अदा करती थी। इनमें अधिकांश संख्या पिछड़ों की थी, इसलिए हर दल उनका आशीर्वाद पाने को आतुर रहता था। बीस माह जेल में रहने के बाद बाबा के मन में एक ऐसे राजनीतिक दल के गठन का विचार जन्म ले चुका था जो सत्ता में गहरा हस्तक्षेप कर सके। जिसमें मांसाहार और शराब जैसे दुर्व्यसनों का स्थान न हो। हालांकि उनसे पहले स्वामी करपात्री रामराज्य परिषद के नाम से राजनीतिक दल का गठन कर ऐसी कोशिश कर चुके थे। शुरुआती चुनाव में कुछ सीटें जीतने के बाद राम राज्य परिषद को जनता ने नकार दिया था फिर भी बाबा जय गुरुदेव ने 1980 में अहमदाबाद में दूरदर्शी पार्टी गठन का ऐलान कर दिया। यह वह दौर था, जब गांव-गांव साइकिलों पर सवार टाट के कपड़े पहनने वाले उनके अनुयायियों की फौज दिखती थी। बाबा का संदेश सतयुग आएगा हर गांव में दीवारों पर नजर आता था। इसमें न सिर्फ एक आदर्श समाज की तस्वीर थी बल्कि परिवर्तन का संकेत भी निहित था। 1984 के आम चुनाव में बाबा की दूरदर्शी पार्टी ने दो राज्यों की 97 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन सारे उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। इसके बाद 1989 में दूरदर्शी पार्टी 288 सीटों पर चुनाव लड़ी जिसमें इसे 0.45 प्रतिशत वोट ही मिले। इस चुनाव में यूपी में दूरदर्शी पार्टी ने 80 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे लेकिन कोई जीत न सका था। बाबा अपनी पार्टी के जरिए चुनाव प्रक्रिया, कराधान और प्रशासन में बदलाव के हिमायती थे लेकिन जनता उनकी बातों को समझ न सकी। 1991 में दूरदर्शी पार्टी के बैनर से 321 प्रत्याशी खड़े हुए लेकिन मात्र 0.17 फीसदी ही वोट हासिल हो सके। बाबा जय गुरुदेव का अपने अनुयायियों पर गहरा भरोसा था लेकिन अब उन्हें यह अहसास हो चला था कि राजनीति में पार पाना उनके बस की बात नहीं। सो उन्होंने 1997 में चुनावी राजनीति से नाता तोड़ लिया लेकिन राजनीति में उनका हस्तक्षेप बराबर बना रहा। अनेक राजनेता उनका पास आशीर्वाद के लिए आते-जाते रहे। 2007 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने समाजवादी पार्टी के समर्थन के लिए पत्र जारी किया था। 2012 के चुनाव में भी उनका परोक्ष समर्थन समाजवादी पार्टी के लिए था।
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