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भगवान भाव के भूखे

दैव लीलाओं की नगरी काशी के भी अपने रंग निराले हैं। श्रद्धा और भक्ति की ऐसी पराकाष्ठा जहां भगवान और भक्त के बीच की सारी औपचारिकताएं समाप्त हो जाती हैं।

By Edited By: Published: Wed, 13 Jun 2012 10:45 AM (IST)Updated: Wed, 13 Jun 2012 10:45 AM (IST)
भगवान भाव के भूखे

वाराणसी। दैव लीलाओं की नगरी काशी के भी अपने रंग निराले हैं। श्रद्धा और भक्ति की ऐसी पराकाष्ठा जहां भगवान और भक्त के बीच की सारी औपचारिकताएं समाप्त हो जाती हैं। रह जाती हैं केवल कोमल भावनाओं की वह गहराई जहां भक्त भगवान और भगवान भक्त में लीन हो जाते हैं। फिर चाहे आप भगवान को नचा लो या फिर शिशु रूप में अपनी गोद में खिला लो, सब कुछ संभव हो जाता है। ऐसे ही भावों से रचे बसे रथयात्रा उत्सव से आया अद्यतन समाचार यह है कि भक्तों की भावनाओं के अनुरूप नाथों के नाथ स्वामी जगन्नाथ इन दिनों स्वयं बीमार हैं। सर्दी जुकाम ने उन्हें कुछ इस तरह जकड़ा है कि उन्होने खाट पकड़ ली है। विश्राम की जरूरत को देखते हुए मंिदर के पट पंद्रह दिनों के लिए बंद कर दिए गए हैं। खानपान के नाम पर औषधि रूप में सिर्फ काढ़ा की खुराक चल रही है।

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अट्ठारहवीं सदी के पूवार्ध से आयोजित होते चले आ रहे भक्ति भाव में रचे-पगे इस उत्सव के सारे अनुष्ठान शास्त्रीय पद्धतियों से पूरी तरह मुक्त सिर्फ भाव पर आधारित हैं। जगन्नाथ पुरी के बाद यह देश का एक मात्र नगर है जहां अनुष्ठानों से ज्यादा यह उत्सव लोक मानस से जुड़ा एक भावपूर्ण व्यवहार है। इस वर्ष भी ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार चार जून से प्रारंभ हो चुके उत्सव का समापन आषाढ़ शुक्ल तृतीया को रथयात्रा के समापन से होगा। अठ्ठारह दिनी उत्सव का शुभारंभ होता है ज्येष्ठ पूर्णिमा को प्रभु जगन्नाथ के स्नान पर्व से। परंपरा के अनुसार ग्रीष्म के कोप से परेशान भगवान को ताप से त्राण दिलाने के लिए भक्त बाकायदा स्नान यात्रा निकाल कर अस्सी स्थित जगन्नाथ मंदिर पहुंचते हैं। वहां स्नेहाधिक्य से यह स्नान कुछ ज्यादा ही हो जाता है। अब ये भीष्म से पूजित भगवान का कोई रण रंगधारी वज्र स्वरूप तो है नहीं जो शीत-ताप सबकुछ सहन कर जाएं। यह तो ठहरे भक्तों को सदा प्रिय सुकुमार रूप जगन्नाथ जी, सो फौरन आ जाते हैं सर्दी -जुकाम की चपेट में। अगले ही दिन से प्रभु को कंप्लीट बेड रेस्ट दे दिया जाता है। दर्शन पूजन बंद और शीघ्र स्वास्थ्य लाभ के लिए कड़वे क्वाथ (काढ़े) की खुराक शुरू। मजे की बात यह है कि पट बंद होने के बाद भी भक्त प्रभु की कुशल-क्षेम लेने रोज मंदिर जाते हैं और प्रसाद के रूप में काढ़े में भी हिस्सा बंटाते हैं। यह क्त्रम चलता है आषाढ़ मास की अमावस्या तक। अमावस्या को स्वास्थ्य लाभ कर चुके जगन्नाथ को पथ्य के रूप में परवल का गर्म जूस दिया जाता है। इस दिन जूस के प्रसाद के लिए भक्तों की कतार लगती है। मान्यता है कि इस प्रसाद की एक बूंद से भी असाध्य रोगों से मुक्ति मिल जाती है।

आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा को वैद्यों की सलाह पर स्वामी जगन्नाथ मनफेर के लिए भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ रिश्तेदारी की सैर पर निकल जाते हैं। उनके भ्रमण का यह उत्सव ही काशी का प्रसिद्ध रथयात्रा मेला है जिसमें आज भी लाखों लोगों की भागीदारी होती है। लोग स्वयं रथ खींच कर प्रभु को सैर-सपाटा कराते हैं और पुण्य के भागी होते हैं। यह उत्सव तीन दिन तक चलता रहता है। मंदिर के महंत आचार्य राम शर्मा के अनुसार भगवान भाव के भूखे हैं। भक्ति जब चरम पर जाती है तो ऐसे में उनके और भक्तों के बीच कोई प्रोटोकाल नहीं रह जाता है।

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