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औघड़दानी की बरात

वाराणसी के निवासियों की उत्सव प्रियता का आलम यह है कि पुराण इतिहास परम्परा सम्मत हो या न हों उन्हें जो चीज भा गई तो भा गई। अब यही देखें महाशिवरात्रि तो ज्योर्तिलिंग के प्रकटीकरण की तिथि है, लेकिन इसे शिव के विवाह की तिथि मानकर निकाली जा रही हैं बरातें।

By Edited By: Published: Wed, 06 Mar 2013 01:05 PM (IST)Updated: Wed, 06 Mar 2013 01:05 PM (IST)
औघड़दानी की बरात

वाराणसी के निवासियों की उत्सव प्रियता का आलम यह है कि पुराण इतिहास परम्परा सम्मत हो या न हों उन्हें जो चीज भा गई तो भा गई। अब यही देखें महाशिवरात्रि तो ज्योर्तिलिंग के प्रकटीकरण की तिथि है, लेकिन इसे शिव के विवाह की तिथि मानकर निकाली जा रही हैं बरातें। महाकवि कालिदास ने लिखा शिवजी ने अपनी शक्ति से झट अपनी देह को ही विवाह योग्य बना लिया। भस्म अंगराग हो गया, कपाल मुकुट हो गया, हाथी का चर्म ही रेशमी वस्त्र हो गया और तो और सर्प भी आभूषणों में बदल गए। वरयात्रा में अपना सारा कामकाज छोड़कर देवगण शामिल हुए। ब्रंा और विष्णु भी। मगर गोस्वामी तुलसी दास बनारसी मिजाज को पहचानते थे। काशी की हास्य प्रियता को देखते हुए लिख मारा कि बरात में कोई तो मुखहीन था तो कोई अनेक मुखोंवाला. कोऊ मुखहीन विपुल मुख काहू।

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यह सूत्र हाथ लग गया तो कहना ही क्या। पहली बार नगर के चार अधिवक्ताओं स्व. केके आनंद,श्री रामेश्वर अग्रवाल, कैलाश केसरी तथा केएलके चंदानी ने तय किया कि शिवबारात निकाली जाय। मेरे स्नेही लोग थे। मुझसे इसलिए मिले कि बरात कहां से शुरू हो और कहां अंत हो। तब मुझे यह ख्याल आया कि महामृत्युंजय मंदिर में किसी जमाने में भैरोनाथ की गवहारिनें नकटा गाया करती थीं। इस आधार पर मैंने परामर्श दिया कि बरात का आरंभ तो महामृत्युंजय मंदिर से और अंत काशी विश्वनाथ मंदिर से। यह बरात क्या शुरू हुई कि अब नगर में अनेक बरातें निकलने लग गई हैं। अनेक मोहल्लों से दिन में बरात निकलती हैं। लेकिन रात में मीलों लंबी शिवबरात, शिव बरात समिति ही निकालती है। अब यह जिम्मेदारी नई पीढ़ी के दिलीप सिंह को दे दी गई है। वह भी अब लखनऊवा हो गए हैं।

बरात में आखिर अपार नागरिक शामिल होते क्यों हैं। क्या मिलता है लोगों को। मैं कहूंगा काशीवासी उत्सव प्रिय होते हैं, बस मौका हाथ लगना चाहिए। तुलसी दास ने ऐसा वर्णन कर दिया जिसके आधार पर मजेदार वातावरण पैदा किया जा सकता है। इतना सामान मिल गया तो हो गया काम। ऐसा नाटकीय वातावरण बनाने में नगरवासी पीछे क्यों रहें। फिर काशी के अधिष्ठाता के साथ यह उत्सव जुड़ा है। अपने आवास के लिए जिस पुरी को भगवान शंकर ने मुक्त कराया उसके हम मकान मालिक तो हैं नहीं। किराएदार ही तो हैं। मकान मालिक के विवाह के मौके पर जिम्मेदार किराएदार का जो दायित्व बनता है उसका पालन बनारस वाले उत्साह से करते हैं। यह मामला श्रद्धा का है। इसके पीछे तार्किकता हो न हो, इससे कोई मतलब नहीं। बाराती कुछ समय के लिए यह महसूस तो करते हैं कि देवाधिदेव भगवान शंकर की वरयात्रा में बाराती होने का पुण्य लाभ तो मिला। शिव तो पात्र-अपात्र का विचार करते ही नहीं जिस मुक्ति या मोक्ष को हजारों बरस तक बड़े बड़े ऋषिमुनि तपस्यारत रहने पर भी नहीं प्राप्त कर पाते, उसे घनघोर पापी भी काशी में प्राण त्याग कर प्राप्त कर लेता है। तारकमंत्र देने वाला बांटे जा रहा है रेवड़ी। यह मुक्तिदाता का शहर है, इसलिए लोग दीवाने हैं उस औघड़दानी के। रेला तो लगा है संत महात्माओं का, नेताओं का, अभिनेताओं का देश के कोने कोने से आने वाले श्रद्धालुओं का। यह सब देखने के बाद कुछ तो लाज आती ही है काशी वासियों को। जिनको लाज आती है वे दिल खोलकर बाबा की सेवा में जुटे रहते हैं। जो लोग निन्यानबे के चक्कर में रहते हैं तार तो उन्हें भी बाबा देते होंगे बाकी भैरव यातना का भोग तो भोगना ही होता होगा। मौज बनारसी के लिए सबसे महत्वपूर्ण है। जिस काम में मौज नहीं उसकी ओर यहां के वासी झांकते नहीं। मौज और हास्य के देवता शंकर ही हैं।

मास शिवरात्रि और महा शिवरात्रि पर्व तो पूरे देश में मनाया जाता है। आस्तिक लोग व्रत उपवास दर्शन, पूजन करते ही हैं। इन सारी व्यवस्थाओं से हटकर ऐसे भी लोग हैं जो कुछ नहीं करते। ऐसे कुछ नहीं करने वालों के लिए है शिवबरात।

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