Move to Jagran APP

श्रद्धा और सबूरी

श्रद्धा हमें सही राह पर लाती है और संयम पथभ्रष्ट नहीं होने देता। यही तो जीवन का मूलमंत्र है, जो हमें शिरडी के साईं बाबा ने श्रद्धा और सबूरी के रूप में दिया है।

By Edited By: Published: Wed, 31 Oct 2012 11:20 AM (IST)Updated: Wed, 31 Oct 2012 11:20 AM (IST)
श्रद्धा और सबूरी

विजयादशमी के दिन शिरडी के संत साईंबाबा का महाप्रयाण दिवस मनाया जाता है। बाबा ने हमें श्रद्धा और सबूरी (सब्र) के रूप में ऐसे दो दीप दिए हैं, जिन्हें यदि हम अपने जीवन में ले आएं, तो उजाला पैदा कर सकते हैं। श्रद्धा हमेशा व्यक्ति को सही रास्ते की ओर ले जाती है, वहीं संयम से वह उस रास्ते पर टिका रह पाता है।

loksabha election banner

जब हम अपने लक्ष्य से भटकने लगते हैं, तब संत ईश्वर के संदेशवाहक बनकर सही मार्ग दिखाते हैं। संतों की श्रृंखला में शिरडी के साईं बाबा का नाम विख्यात है। 15 अक्टूबर 1918 को विजयादशमी के पर्व पर साईंबाबा ने महाप्रयाण किया, किंतु उनका उपदेश श्रद्धा और सबूरी आज भी हमें जीवन जीने की कला सिखा रहा है।

श्रद्धा ईश्वर तक पहुंचने की सीढ़ी है। शास्त्रों में लिखा है कि भक्त को भगवान से मिलाने की क्षमता केवल श्रद्धा में ही है। ईश्वर आडंबर से नहीं, बल्कि सच्ची श्रद्धा से ही सुलभ होता है। श्रीमद्भागवद्गीता (4-39) में कहा गया है- श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेंद्रिय:। ज्ञानं लब्धवा परां शांतिमचिरेणाधिगच्छति।। अर्थात श्रद्धावान मनुष्य जितेंद्रिय साधक बनकर तत्वज्ञान प्राप्त करता है और तत्काल ही भगवत्प्राप्ति के रूप में परम शांति पा लेता है।

श्रद्धा के बिना विवेकहीन व्यक्ति संशयग्रस्त होकर पथभ्रष्ट हो जाता है। गीता के अनुसार - अज्ञश्चाश्रद्धानश्च संशयात्मा विनश्यति। नायं लोकोस्ति न परो न सुखं संशयात्मन:।। अर्थात श्रद्धारहित विवेकहीन संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से पथभ्रष्ट हो जाता है। ऐसे मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न ही सुख है।

यह सच है कि श्रद्धा की शक्ति के बिना मानव शंकाओं में भटककर विवेकहीन हो जाता है। तब वह जीवन के लक्ष्य से दूर हो जाता है। यह श्रद्धा सभी व्यक्तियों में समान रूप से नहीं हो सकती, क्योंकि यह उनके अंत:करण के अनुरूप होती है। गीता (17-2) इस बारे में प्रकाश डालती है- त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा। सात्विकी राजसी चैव तामसी चेतितां श्रृणु।। अर्थात मनुष्य के स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा सात्विक, राजसिक और तामसिक तीन प्रकार की होती है। कर्र्मो के संस्कार मनुष्य का स्वभाव बनाते हैं। अपने भिन्न स्वभाव के कारण मनुष्य सात्विक, राजसिक और तामसिक होता है। अर्थात श्रद्धा मनुष्य के स्वभाव के अनुरूप ही होती है।

ऋषियों ने कहा है कि जिसकी जैसी श्रद्धा होती है, उसे उसी के अनुरूप परिणाम मिलता है। श्रद्धा ही पत्थर को शिव बना देती है। श्रद्धा भावनात्मक संबंधों की संजीवनी है।

साईंबाबा का दूसरा उपदेश है - सबूरी यानी सब्र या संयम। आज हमारे भीतर संयम की ताकत बहुत कम हो गई है। हम अपने हर काम का परिणाम तत्काल चाहते हैं। हम अपनी हर इच्छा तुरंत पूरी होते देखना चाहते हैं। संयम खो देने पर बड़ा योगी भी पतित हो जाता है। हमें अपने मन, वचन और कर्म तीनों पर संयम का अंकुश लगाना चाहिए। गीता में संयम का पाठ पढ़ाते हुए यह संकेत दिया गया है कि इंद्रियां बड़ी चंचल हैं। इनको जीतना अत्यंत कठिन है, किंतु यह दुष्कर कार्य संयम के बल से किया जा सकता है।

हमारी अधिकांश समस्याएं संयम के अभाव से ही उत्पन्न हुई हैं। संयम खो देने पर महायोगी भी साधारण बन जाता है। संतों ने हमेशा यही शिक्षा दी है कि सब्र का फल मीठा होता है, अत: हर एक को संयमशील बनना चाहिए। संयम का कवच हमें विपत्तियों के प्रहार से बचाता है। साईं बाबा ने श्रद्धा के साथ सबूरी को जोड़कर हमें ऐसा ब्रहृामास्त्र दे दिया है, जिससे हम हर स्थिति में निपट सकते हैं। यह उपदेश मानव के लिए सफलता का वह महामंत्र है, जो हर युग में प्रासंगिक एवं जनोपयोगी बना रहेगा।

मोबाइल पर ताजा खबरें, फोटो, वीडियो व लाइव स्कोर देखने के लिए जाएं m.jagran.com पर


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.