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सफलता का सूत्र

चातुर्मास में भगवान विष्णु योगनिद्रा में लीन रहते हैं। यह संयम की महासाधना है। इस अवधि में हमें भी संयम का अभ्यास करना चाहिए, ताकि जीवन-पथ पर निर्बाध रूप से आगे बढ़ सकें।

By Edited By: Published: Fri, 29 Jun 2012 03:47 PM (IST)Updated: Fri, 29 Jun 2012 03:47 PM (IST)
सफलता का सूत्र

धर्मग्रंथों में लिखा है- जो मनुष्य चातुर्मास में अपनी किसी प्रिय वस्तु को त्यागकर संयम की साधना करता है, वह निश्चित रूप से ईश्वर का प्रिय बनता है। चातुर्मास में अपनी प्रिय वस्तु के त्याग का विधान ऋषि-मुनियों ने मनुष्य को संयम का अभ्यास कराने के उद्देश्य से ही बनाया है। क्योंकि वे जानते थे कि संयम के अभाव में हम अपने मन के गुलाम बन जाते हैं। आज हमारे दुखों की मुख्य वजह भी यही है कि हमारा अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण नहीं है। संयम के अंकुश से मन सदा सही रास्ते पर चलता है। संयम का कवच धारण किए हुए मानव को कोई भी मजबूरी, कैसी भी परिस्थिति अपने पथ से डिगा नहीं सकती।

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पुराणों में एक कथा मिलती है कि त्रिदेवों (ब्रšा, विष्णु और महेश) की जब महर्षि भृगु ने परीक्षा ली, तब उन्होंने विष्णुजी को ही सर्वाधिक संयमी पाया। चातुर्मास में हम यदि भगवान विष्णु को अपना गुरु बनाकर उनसे संयम की शिक्षा लेंगे, तो हमारी साधना पूर्ण होगी और चातुर्मास का अनुष्ठान भी फलीभूत होगा। जीवन में सफलता के लिए संयम सर्वाधिक आवश्यक है।

सनातन धर्म की मान्यता है कि संपूर्ण विश्व के पालनकत्र्ता भगवान विष्णु प्रति वर्ष आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी की रात्रि में चार मास के लिए योगनिद्रा में लीन होते हैं। यह एक प्रकार से संयम की उनकी महासाधना है। यह तिथि देवशयनी एकादशी कहलाती है। चार मास योगनिद्रालीन होने के उपरांत कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की एकादशी को प्रात: भगवान विष्णु जागते हैं। अतएव यह तिथि श्रीहरि-प्रबोधिनी (देवोत्थान) एकादशी के नाम से जानी जाती है। इन दोनों तिथियों के मध्य की चार मास की अवधि को चातुर्मास कहा जाता है। श्रीहरि के इस योगनिद्राकाल (चातुर्मास) का आध्यात्मिक महत्व है।

धर्मग्रंथों में चातुर्मास में विवाह, मुंडन, यज्ञोपवीत, नवगृह-प्रवेश आदि शुभ कार्यो को न करने की बात कही गई है। इन कार्यो को वर्जित किए जाने के पीछे मुख्य तर्क दिया जाता है कि प्रत्येक मांगलिक कार्य में भगवान विष्णु को साक्षी मानकर संकल्प लिया जाता है। चातुर्मास में चूंकि श्रीहरि योगनिद्रालीन रहते हैं, इसलिए उनका आवाहन करना योगनिद्रा (समाधि) को भंग करना है। मान्यता है कि श्रीहरि लोक कल्याण हेतु यह महासमाधि लेते हैं और लोगों को संयम की शिक्षा देते हैं।

शास्त्रों में भगवान विष्णु के योगनिद्रालीन स्वरूप का ध्यान इस प्रकार बताया गया है-

शांताकारम् भुजगशयनम् पद्मनाभम् सुरेशम्..विश्वाधारम् गगनसदृशम्

मेघवर्णम् शुभाङ्गम्। लक्ष्मीकांतम् कमलनयनम् योगिभिध्र्यानगम्यम्..वन्दे विष्णुं भवभयहरम् सर्वलोकैकनाथम्॥

अर्थात जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शय्या पर शयनरत हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो संपूर्ण जगत के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नील मेघ के समान जिनका वर्ण है, जिनके अंग सुंदर हैं, जिन्हें योगी ध्यान करके प्राप्त करने का प्रयास करते हैं, जो समस्त लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूपी भव-बंधन को हरने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान विष्णु की मैं वंदना करता हूं।

श्रीहरि के इस स्वरूप का ध्यान करने से चित्त में संयम का भाव उदित होता है। आज की भाग-दौड़ में पिस रहे मनुष्य के लिए संयम संजीवनी बूटी की तरह है। भौतिकता की आपाधापी में हम यह भूल बैठे हैं कि हम कौन हैं? इस संसार में क्या करने आये हैं? हमारा वास्तविक लक्ष्य क्या है? इन सब सवालों का जवाब पाने के लिए हमें अपने अंत:करण में संयम की सीढ़ी से उतरना होगा।

हमारी अधिकांश समस्याओं का मूल कारण हमारा असंयम है। संयम से च्युत (पृथक) होते ही मन पागल हाथी की तरह अनुशासनहीन होकर उन्मत हो जाता है और तब हमसे वे गलतियां हो जाती हैं, जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। श्रीहरि का एक नाम अच्युत है, जिसका अर्थ है जो कभी भी अपने स्थान से न डिगे। श्रीहरि का ध्यान करने से हमारे जीवन में संयम उदित होता है। जब हम अपने मन को भक्ति की रस्सी से श्रीहरि-रूपी खंभे से बांध देते हैं, तब हमारा मन नियंत्रण में आ जाता है। अन्यथा सामान्य मनुष्य तो क्या, बड़े-बड़े योगी भी कालचक्रवश संयम से च्युत होकर पतन के गर्त में गिर जाते हैं।

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