देवों का चिह्न है ध्वज
ध्वज देव संस्कृति का ऐसा आकर्षक प्रतीक है, जिसकी महत्ता युद्ध से लेकर शांतिकाल तक सभी में है। भारत वर्ष ही नहीं, दुनिया के हर देश को अपनी पहचान के लिए इसकी आवश्यकता है।
ध्वज देव संस्कृति का ऐसा आकर्षक प्रतीक है, जिसकी महत्ता युद्ध से लेकर शांतिकाल तक सभी में है। भारत वर्ष ही नहीं, दुनिया के हर देश को अपनी पहचान के लिए इसकी आवश्यकता है। देवों के प्रतीक-चिह्न के रूप में ध्वज का इस्तेमाल किया जाता है। जिस देवता का ध्वज होता है, उस पर उसका वाहन अंकित होता है। जैसे विष्णु का गरुड़ध्वज और सूर्य का अरुणध्वज। हमारे यहां युगों पहले ही ऋग्वेद में केतु शब्द के रूप में ध्वजों का उल्लेख मिलता है। विश्व के इस प्राचीनतम ग्रंथ में सूर्य को ब्रंांड का ध्वज कहा गया है। इसी प्रकार धूम्र को अग्नि का ध्वज कहा गया है। वाल्मीकि रामायण में भगवान राम की महिमा की गाथा कुलस्य केतु अर्थात कुलध्वज कहकर की गई है। महाभारत में तो हर योद्धा अपने ध्वज के नाम से ही प्रसिद्ध था। उदाहरण के तौर पर अर्जुन कपिध्वज के नाम से और विष्णु गरुड़ध्वज के नाम से विख्यात थे।
वर्तमान युग में भी धर्म-ध्वजा जन-जन की आराध्य है। इसी प्रकार राष्ट्र-ध्वज के रूप में अपने प्यारे तिरंगे के लिए बच्चे से लेकर सीमा पर मौजूद जवान तक सब कुछ कर गुजरने के लिए तैयार रहता है।
(साभार : देव संस्कृति
विश्वविद्यालय, हरिद्वार)
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