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महर्षि का प्रेरक जीवन

महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती ने जो शिक्षाएं दीं, स्वयं भी उनका पालन किया। दयानंद जी के जीवन का अनुसरण करके जीवन को उन्नति के सोपान पर ले जा सकते हैं। जयंती [17 फरवरी] पर विशेष..

By Edited By: Published: Tue, 14 Feb 2012 07:06 PM (IST)Updated: Tue, 14 Feb 2012 07:06 PM (IST)
महर्षि का प्रेरक जीवन

महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती ने जो शिक्षाएं दीं, स्वयं भी उनका पालन किया। दयानंद जी के जीवन का अनुसरण करके जीवन को उन्नति के सोपान पर ले जा सकते हैं। जयंती [17 फरवरी] पर विशेष..

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महर्षि दयानंद चारों वेदों के ज्ञाता तो थे ही, वेदांग और शास्त्रों के भी प्रकांड विद्वान थे। आयुर्वेद में बताए गए जीवन-सूत्रों का उन्होंने स्वयं पालन किया। भोर में उठ जाना, जल पीना, शौच जाना, घूमना, आसन, प्राणायाम, ध्यान करना, फिर स्वाध्याय और सात बजे तक नाश्ता लेकर जनहित के कायरें में लग जाना..। यही थी उनकी दिनचर्या। वे दिन भर कठिन मेहनत करते, यहां तक कि भोजन की चिंता तक उन्हें नहीं रहती। वे शाकाहार ही करते। उनका कहना था कि शाकाहार में अपरिमित शक्ति है।

महर्षि की दिनचर्या देखकर लोगों को हैरानी होती थी, क्योंकि वे हमेशा कार्यो में व्यस्त रहते थे। एक घटना है। महर्षि दयानंद के पास एक व्यक्ति आया और बोला-स्वामी जी, मैं क्या करूं, जिससे सुखी हो जाऊं। दयानंद कुछ पल रुककर बोले, हर कार्य को मन लगाकर पूरी शक्ति से करो, तो निश्चित ही सुखी हो जाओगे। उस व्यक्ति ने वैसा ही किया और सुखी हो गया। एक श्रेष्ठ इंसान की जिंदगी कैसी होनी चाहिए, महर्षि उसके प्रतीक थे।

महर्षि कहते थे कि इंसान तभी समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह कर सकता है, जब उसका शरीर पूर्णत: स्वस्थ हो। शरीर से कमजोर व्यक्ति का मन भी उसके काबू में नहीं होता, तो वह परोपकार के कार्य कैसे कर सकता है। महर्षि दयानंद ने समाज, देश, संस्कृति और धर्म की उन्नति के लिए अनेक कार्य किए।

महर्षि दयानंद की शिक्षाएं हमें बेहतर इंसान बनाती हैं। उन्होंने ईश्वर की प्रार्थना पर बल दिया, क्योंकि इससे मन को केंद्रित करने का अभ्यास होता है और हर कार्य को मनोयोग से कर पाने का आत्मविश्वास आता है। उन्होंने यह भी कहा कि घर आए मेहमान को खिलाने के बाद ही खाना चाहिए। माता-पिता या अपने बड़ों की सेवा और खाने के पहले आश्रितों को भोजन कराना वे आवश्यक मानते थे और इनका पालन करते थे।

महर्षि का मानना था कि शारीरिक और सामाजिक उन्नति के बाद इंसान को आत्मिक उन्नति करना चाहिए। वे इसके लिए सत्य को आवश्यक मानते थे। उन्होंने सत्य के साथ-साथ प्रेम, करुणा, दया, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अभय, सत्साहस, अपरिग्रह, त्याग, परोपकार, न्याय, सदाशयता, सहिष्णुता, धर्म और अन्य सद्गुणों को जीवन का अहम हिस्सा बनाकर बता दिया कि इनके पालन से मनुष्य कितनी उन्नति कर सकता है। इसलिए गांधीजी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, लाला लाजपतराय सहित सभी महान हस्तियों ने उन्हें उस युग का सर्वश्रेष्ठ मानव कहकर अभिनंदन किया।

उनका विचार था कि सत्यवादी कभी भी अन्यायी बलवान से न डरे और निर्बल न्यायकारी व्यक्ति से विनम्र रहे। वे कहते थे, पत्थर की मूर्ति के आगे सिर न झुकाकर भगवान की बनाई मूर्ति [मनुष्यों] के आगे ही सिर झुकाना चाहिए। वे स्त्रियों को मातृ-शक्ति कहकर सम्मान देते थे।

महर्षि दयानंद ने पर्यटन करके देश की दशा का अध्ययन किया और गुलामी से हो रहे देश, समाज, संस्कृति और शिक्षा की दुर्दशा को नजदीक से देखा और बेहतरी के प्रयास किए। यदि इंसान प्रतिदिन अपने कायरें की समीक्षा करे, तो वह बुराइयों से दूर होता जाएगा। इसलिए वे प्रतिदिन अपनी समीक्षा करते थे। वे सत्यार्थ प्रकाश में कहते हैं-कोई कार्य दूसरों के कहने से नहीं, बल्कि अपनी बुद्धि से करना चाहिए। महर्षि दयानंद अपरिग्रह और अहिंसा के पालन पर भी जोर देते थे।

जीवन की उन्नति कैसे हो, यह महर्षि के जीवन से सीखा जा सकता है। उनका मानना था कि लालच, लोभ और छल-कपट से इंसान कभी उन्नति नहीं कर सकता। महर्षि का प्रेरक जीवन आज भी हमारे लिए मील के पत्थर की तरह है।

[अखिलेश आर्येन्दु]

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